Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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चर्तुथ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान
[285]
(क) अक्षर की अपेक्षा से श्रुतज्ञान के भेद - षटखंडागम के अनुसार श्रुतज्ञान की संख्यात प्रकृतियाँ हैं अर्थात् जितने अक्षर हैं उतने ही श्रुतज्ञान के भेद हैं, क्योंकि एक-एक अक्षर से एक-एक श्रुतज्ञान की उत्पत्ति होती है। 10 धवलाटीका में अक्षरों के प्रमाण की निम्न प्रकार से स्पष्टता की गई है।
1. अक्षरों की संख्या 64 अर्थात् तेतीस व्यंजन, सत्ताईस स्वर और चार अयोगवाह (उपध्मानीय क, प अं, अः) इस प्रकार कुल वर्ण चौंसठ होते हैं। 11 इन चौंसठ अक्षरों की अपेक्षा से श्रुतज्ञान के एक संयोगी भंग (विकल्प) 64 होते हैं। अक्षरों के संयोग की विवक्षा न करके जब अक्षर ही केवल पृथक्-पृथक् विवक्षित होते हैं, तब श्रुतज्ञान के अक्षरों का प्रमाण चौसठ होता है। क्योंकि संयुक्त
और असंयुक्त रूप में स्थित श्रुतज्ञान के कारणभूत अक्षर चौसठ ही है। श्रुतज्ञान एक अक्षर से भी उत्पन्न हो सकता है। क्योंकि जो समुदाय में होता है वह एक में भी होता है, जैसेकि संयोगाक्षर अनेक अर्थों में अक्षरों के उलट-फेर के बल से रहता है तो भी अक्षर एक ही है, क्योंकि एक दूसरे को देखते हुए ज्ञान रूप कार्य को उत्पन्न कराने की अपेक्षा उनमें कोई भेद नहीं पाया जाता 12
2. एक वर्ण का अन्य वर्ण के साथ संयोग होता है, तब संयोगी भंग की संख्या बढती है, जैसे कि एक अक्षर (अ) का एक संयोगी भंग, दो अक्षरों (अ, आ) के संयोग से तीन भंग, तीन अक्षरों (अ, आ, इ) के संयोग से सात भंग बनते है, यथा 1. अ 2. आ 3. इ 4. अ+आ, 5. अ+इ, 6.
आ+इ और 7. अ+आ+इ, इस प्रकार अक्षरो के संयोग बढने से भंगों की संख्या भी बढ़ती है। जिसकी कुल संख्या 1844674407309551616 होती है। 13 पदों की कुल संख्या को निकालने की विधि षट्खंडागम में दी है। 14 इस संख्या में एक कम करने पर संयोगाक्षरों का प्रमाण प्राप्त होता है, यथा 1844674407309551615 इतने मात्र संयोग अक्षर उत्पन्न होते हैं। उनसे इतने ही प्रकार का श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है और श्रुतज्ञानावरण के विकल्प भी उतने ही होते हैं अर्थात् अभिधेय और उसमें जितने संयोग होते हैं, उन अक्षर संयोगों की संख्या निश्चित रहने योग्य है। 15 जबकि आवश्यकनियुक्ति के अनुसार जितने अभिधेय होते हैं, उतने ही श्रुत के भेद होते हैं।
यहां संयोग का अर्थ दो अक्षरों की एकता, अथवा दोनों का साथ में उच्चारण करना इस रूप में है। क्योंकि एकता (एकत्व) मानने पर द्वित्व का नाश होने से संयोग में बाधा आती है। साथ में उच्चारण करना भी संयोग नहीं है क्योंकि चौसठ अक्षरों का उच्चारण एक साथ नहीं होता है, अत: यहाँ संयोग का अर्थ एकार्थता (एकार्थबोधकता) है।16
3. यदि कोई ऐसी शंका करे कि बाह्य वर्ण क्षणभंगुर होने से बाह्यार्थ वर्गों का समुदाय नहीं हो सकता है, तो इसका समाधान यह है कि बाह्यार्थ वर्गों से अंतरंग वर्ण उत्पन्न होते हैं, जो जीव में देशभेद के बिना अंतर्मुहूर्त काल अवस्थित रहते हैं और बाह्यार्थविषयक विज्ञान को उत्पन्न करने में समर्थ हैं। इससे बाह्य वर्गों के अस्तित्व के सम्बन्ध में कोई विरोध नहीं है। 17
(ख) प्रमाण की अपेक्षा से श्रुतज्ञान के भेद - प्रमाण की दृष्टि में श्रुत के बीस भेद हैं, यथा पर्याय, पर्यायसमास, अक्षर, अक्षरसमास, पद, पदसमास, संघात, संघातसमास, प्रतिपत्ति, प्रतिपत्तिसमास, 410. षट्खं डागम, पु. 13 सूत्र 5.5.44-45 पृ. 247 411. तेत्तीसवंजणाई सत्तावीसं हवंति सव्वसरा। चत्तारि अजोगवहा एवं चउसट्ठि वण्णाओ।
__-षट्खंडागम, पुस्तक 13, सूत्र 5.5.45, पृ. 248 412. षट्खंडागम, पु. 13 सू. 5.5.46, पृ. 259-260
413. षट्खंडागम, पु. 13, पृ. 249 414. षट्खंडागम, पु. 13, सू. 5.5.46, पृ. 248
415. षट्खं डागम, पु. 13, सू. 5.5.46, पृ. 254,260 416. षट्खंडागम, पु. 13, सू. 5.5.46, पृ. 250
417. षट्खंडागम, पु. 13, सू. 5.5.46, पृ. 251