Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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चर्तुथ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान
द्वादशांगी की पौरुषेयता
शास्त्र वचनात्मक है। वचन तालु, ओष्ठ आदि के परिस्पंदन से उत्पन्न होता है। पुरुष की वाग्प्रवृत्ति के साथ उसका अन्वय और व्यतिरेक संबंध है। जब पुरुष में तालु, ओष्ठ आदि की प्रवृत्ति होती है, तब वचन उत्पन्न होता है, जब पुरुष की प्रवृत्ति नहीं होती, तब वह उत्पन्न नहीं होता है। पुरुष की प्रवृत्ति के बिना वचन आकाश में ध्वनित नहीं होता है 100
द्वादशांग के विषय
द्वादशांग गणिपिटक में अनन्त भावों, अनन्त अभावों, अनन्त हेतुओं, अनन्त अहेतुओं, अनन्त कारणों, अनन्त अकारणों, अनन्त जीवों, अनन्त अजीवों, अनन्त भवसिद्धि को, अनन्त अभवसिद्धि को, अनन्त सिद्धों, अनन्त असिद्धों का उल्लेख है 1401
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द्वादशांगी ही श्रुतज्ञान
श्रुतज्ञान द्वादशांगात्मक है । वह क्षायोपशमिक भाव है । अर्हत् द्वारा प्रणीत प्रवचन के अर्थ को जो परिज्ञान है, वही परमार्थतः श्रुतज्ञान है, शेष नहीं 1402
द्वादशांग की शाश्वतता
नंदीसूत्र में द्वादशांग गणिपिटक की त्रैकालिता को सिद्ध किया गया है। जैसे कि पांच अस्तिकाय (1. धर्म 2. अधर्म 3. आकाश 4. जीव और 5. पुद्गल) पहले कभी नहीं रहे हों - ऐसी बात नहीं हैं और कभी नहीं रहते हैं - ऐसा भी नहीं है तथा आगे कभी नहीं रहेंगे ऐसा भी नहीं है। ये रहे हैं, रहते हैं और रहेंगे। क्योंकि ये ध्रुव हैं, नियत हैं, शाश्वत हैं, अक्षय हैं, अव्यय हैं, अवस्थित हैं, नित्य हैं। इसी प्रकार द्वादशांग गणिपिटक, ऐसा नहीं कि जो पहले कभी नहीं रहा हो, ऐसा भी नहीं कि यह कभी नहीं रहता हो और ऐसा भी नहीं कि कभी नहीं रहेगा। यह पहले भी रहा है, वर्तमान में भी रहता है और आगे भी रहेगा, क्योंकि आगमकारों ने इसके लिए ध्रुवादि 03 सात विशेषण दिये हैं, जिससे द्वादशांग गणिपिटक की त्रैकालिकता स्वतः सिद्ध हो जाती है, यथा
1. ध्रुव - जैसे मेरु पर्वत निश्चल है, वैसे द्वादशांगी गणिपिटक में जीवादि पदार्थों का निश्चल प्रतिपादन होता है। 2. नियत जैसे पाँच अस्तिकाय के लिए 'लोक' यह वचन नियत है, वैसे ही द्वादशांग गणिपिटक के वचन पक्के हैं, बदलते नहीं हैं।
3. शाश्वत - जैसे महाविदेह क्षेत्र में चौथा दुःषमसुषमा काल निरंतर विद्यमान रहता है, वैसे ही वहाँ यह द्वादशांगी सदा काल विद्यमान रहती है।
4. अक्षय - जैसे पौण्डरीक द्रह से गंगा नदी का प्रवाह निरंतर बहता है, पर कभी पौण्डरीक द्रह खाली नहीं होता वैसे ही द्वादशांग गणिपिटक की निरंतर वाचना आदि देने पर भी कभी इसका क्षय नहीं होता ।
5. अव्यय - जैसे मनुष्य क्षेत्र के बाहर के समुद्र सदा पूरे भरे रहते हैं, उनका कुछ भाग भी व्यय नहीं होता, वैसे ही द्वादशांग गणिपिटक सदा पूरा भरा रहता है, उसमें से कुछ भाग भी व्यय नहीं होता ।
400. सर्वाण्यपि श्रुतानि पौरुषेयाण्येव न किमप्यपौरुषेयमस्ति, असम्भवात्, शास्त्रं वचनात्मकं वचनं ताल्वोष्ठपुटपरिस्पन्दादिरूपपुरुषव्यापारान्वयव्यतिरेकानुविर्धाय । - मलयगिरि नंदीवृत्ति पृ. 16
401. नंदीसूत्र पृ. 202
402. आवश्यकनिर्युक्ति गाथा 104, मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 250
403. नंदीसूत्र पृ. 204