Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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[225] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन प्रकार लिपि के अनेक प्रकार होते हैं। समवायांग, प्रज्ञापना आदि में इन अठारह लिपियों के नाम कुछ प्रकार भेद से मिलते हैं। सभी लिपियों के अक्षर घुनाक्षरन्याय से संज्ञाक्षर होते हैं। 2. व्यञ्जन अक्षर श्रुत ___ जिस प्रकार दीपक घट को प्रकाशित करता है। उसी प्रकार जिससे अर्थ की अभिव्यक्ति हो उसे व्यंजन कहते हैं। अकार से हकार तक के भाष्यमाण शब्द उच्चारणकाल में व्यंजनाक्षर कहलाते हैं अर्थात् बोलते समय शब्द व्यंजनाक्षर है, क्योंकि वह शब्द के अर्थ को प्रकट करने वाला है। अर्थात् श्रोता को अर्थ का ज्ञान हो सके, इस प्रकार अक्षरों के स्पष्ट उच्चारण को 'व्यंजन अक्षर' कहते हैं। जैसे दीपक से घट, पट आदि पदार्थ दृश्य होते हैं, वैसे ही भाषा से वक्ता के अभिप्राय ज्ञात होते हैं, इसलिए भाषा को 'व्यंजन अक्षर' कहते हैं। अर्द्धमागधी, संस्कृत आदि प्राचीन काल में भाषा के कई भेद थे। आज भी लोकभाषा, साहित्यभाषा आदि कई भेद पाये जाते हैं।
नंदीसूत्र के अनुसार - अक्षरों के स्पष्ट उच्चारण को अर्थात् भाषा को 'व्यंजनाक्षर' कहते हैं। जिससे अर्थ की अभिव्यंजना हो, उसे व्यंजनाक्षर कहते हैं।
व्यंजानाक्षर अभिधेय से भिन्न भी है, अभिन्न भी है। 'मोदक' शब्द कहने से मुंह नहीं भरता, इस दृष्टि से वाच्य वाचक से भिन्न है। मोदक कहने से मोदक का ही संप्रत्यय होता है, तद्व्यतिरिक्त घट आदि का नहीं अत: वाच्य वाचक से अभिन्न भी है।'
इस प्रकार संक्षेप में वर्ण के दो प्रकार होते हैं - संज्ञाक्षर और व्यंजनाक्षर। लिपि के रूप में आकार संज्ञाक्षर है और उसका उच्चारण व्यंजनाक्षर है। चित्र से घट आदि का ज्ञान होता है, उससे चित्र को भी संज्ञाक्षर मानना पड़ता है, क्योंकि प्राचीन काल में प्रयुक्त हुई चित्र लिपि इस कथन का समर्थन करती है। 3. लब्धि अक्षरश्रुत
जिनभद्रगणि ने लब्ध्यक्षर के दो भेद किये हैं - 1. इन्द्रिय और मन के निमित्त से श्रुतग्रंथ के अनुसार ज्ञान और 2. तदावरणक्षयोपशम। इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला श्रुतग्रन्थानुसारी विज्ञान (श्रुतज्ञान का उपयोग) और श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम ये दोनों लब्ध्यक्षर हैं।”
जिनदासगणि और मलयगिरि ने प्रथम अर्थ और हरिभद्र और यशोविजयजी ने उपर्युक्त दोनों अर्थों का उल्लेख किया है। ___नंदीसूत्र के अनुसार - अक्षर लब्धि वाले जीव को लब्धि, अक्षर उत्पन्न होता है।" शब्दार्थ को मतिज्ञान से ग्रहण कर या स्मरण कर, शब्द और अर्थगत वाच्य-वाचक सम्बन्ध की पर्यालोचनापूर्वक (शब्द उल्लेख सहित) शब्द व अर्थ (पदार्थ) जानना अर्थात् भावश्रुत को 'लब्धि अक्षर' कहते हैं।
91. मलधारी हेमचन्द्र गाथा 464 की बृहद्वृत्ति, भाग 1, पृ. 217 92. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 465 93. वंजणक्खरं - अक्खरस्स वंजणाभिलावो। - नंदीसूत्र पृ. 146 94. नंदीचूर्णि, पृ. 71 95. आवश्यकचूणि 1 पृ. 27 96. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 462-463, नंदीचूर्णि 72, हारिभद्रीय पृ. 72, मलयगिरि पृ. 188 जैनतर्कभाषा पृ. 22 97. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 466 98. नंदीचूर्णि, पृ. 71, हारिभद्रीय नंदीवृत्ति पृ. 72, मलयगिरि नंदीवृत्ति पृ. 188, जैनतर्कभाषा पृ. 22 99. लद्धिअक्खरं अक्खरलद्धियस्स लद्धिअक्खरं समुप्पज्जइ। - नंदीसूत्र, पृ. 146