Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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चर्तुथ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान
[231]
भावेन्द्रिय बताई है, इसलिए एकेन्द्रिय में एक ही भावेन्द्रिय समझनी चाहिए। शब्दादि का स्पर्श होने से जो कार्य होते हैं। ये सभी कार्य स्पर्शनेन्द्रिय से ही हो सकते हैं। जैसे श्वास लेना नाक का कार्य है, भोजन करना जीभ का कार्य है, परन्तु एकेन्द्रिय जीव स्पर्शनेन्द्रिय से ही शेष चार इन्द्रियों के कार्यों को करते हैं और यह कार्य संज्ञा के अन्तर्गत हैं। प्रज्ञापनासूत्र के 8वें संज्ञा पद में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों में आहारसंज्ञा से लेकर ओघसंज्ञा, लोकसंज्ञा तक दसों ही संज्ञाएं पाई जाती हैं। अतः आगमिक दृष्टि से तो एकेन्द्रिय में एक ही भावेन्द्रिय मानना उचित्त प्रतीत होता है।
प्रश्न - क्या एकेन्द्रियों को भी श्रुत (अ)ज्ञान होता है?
उत्तर - हाँ, पर वह सोये हुए या मद्य में मत्त मूर्च्छित प्राणी के श्रुत ज्ञान के सदृश अव्यक्त होता है। जब वे एकेंद्रियादि जीव, क्षुधा-वेदन आदि के समय 'क्षुधा' शब्द और 'क्षुधा वेदना' इनमें निहित वाच्य-वाचक सम्बन्ध पर्यालोचना पूर्वक और 'मुझे भूख लगी है'-यों अन्तरंग शब्द उल्लेख सहित क्षुधा का वेदन करते हैं, तब उन्हें श्रुतज्ञान होता है, ऐसा समझना चाहिए।
आवश्यकचूर्णि के अनुसार असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव घट, पट आदि पदार्थों को देखता हुआ भी नहीं जानता कि 'यह कुछ है। अतः लब्ध्यक्षर प्रायः संज्ञी के होता है, असंज्ञी के नहीं।19 हरिभद्र आदि कुछेक आचार्यों ने विकलेन्द्रिय जीवों में लब्ध्यक्षर नहीं मानता है। 20 जबकि मलयगिरि ने दोनों मतों का उल्लेख किया है - 1. लब्ध्यक्षर अक्षरानुविद्ध ज्ञान है, इसलिए वह समनस्क जीवों के ही हो सकता है, अमनस्क जीव अक्षर को पढ़ नहीं सकते और उसके उच्चारण को समझ नहीं सकते हैं। अतः उनके लब्ध्यक्षर संभव नहीं है। 2. एकेन्द्रियादि जीवों में आहार आदि की अभिलाषा होती है। अभिलाषा प्रार्थना है और प्रार्थना अक्षरानुविद्ध होती है। इससे एकेन्द्रिय जीवों के भी लब्ध्यक्षर हो सकते हैं। अन्तर यह है कि वह अव्यक्त होता है।21 जिनदासगणि ने नंदीचूर्णि में इस विषय में किसी भी प्रकार का उल्लेख नहीं किया है। इस प्रकार लब्धि अक्षर के स्वामी के सम्बन्ध में पूर्वाचार्यों में मतभेद है। एक अकार आदि की पर्याय
जिनभद्रगणि के अनुसार संयुक्त अक्षर जैसे व्याधि, सिद्धि और असंयुक्त अक्षर जैसे घट, पट आदि अक्षरों के संयोग अनन्त हैं, प्रत्येक संयोग अनन्त पर्याय वाला होता है। एक-एक अक्षर स्वपर-पर्याय के भेद से भिन्न है। प्रत्येक अक्षर की स्व-पर्याय और पर-पर्याय धर्मास्तिाकायादि सभी द्रव्यों की पर्यायराशि के समान है।2 इस त्रिलोक (ऊँचा, नीचा और तिर्यक् लोक) में जितने परमाणु, द्वयणुकादि और एक आकाशप्रदेशादि जो द्रव्य हैं, इन सभी को इकट्ठा करने पर जितनी राशि प्राप्त होती है, वह राशि एक अकारादि अक्षर की पर्याय के तुल्य है। उसमें अल्प रूप स्वपर्याय (राशि से वह भी अनन्त है) और अधिक मात्रा में पर पर्याय है। स्व-पर्याय से पर-पर्याय अनन्त गुणा अधिक है।
बृहद्वृत्ति में मलधारी हेमचन्द्र ने दृष्टांत द्वारा समझाते हुए कहा है कि असत् कल्पना से सर्व द्रव्यों की पर्याय जो अनन्तानन्त है, उसको एक लाख प्रमाण तथा अकार इकार आदि वाच्य पदार्थों की संख्या एक हजार मानले। सर्व द्रव्यों की पर्याय संख्या में अकार आदि सभी वाच्य पर्यों की संख्या का भाग देने पर एक अकार अक्षर की सम्बद्ध स्वपर्याय का प्रमाण सौ प्राप्त होता है। 119. आवश्यकचूर्णि भाग 1, पृ. 28 120. ....अनेन विकलेन्द्रियादिव्यवच्छेदमाह। हारिभद्रीय नंदीवृत्ति, पृ. 72 121. मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 188
122. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 445,477