Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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चर्तुथ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान
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11-12. गमिक श्रुत-अगमिक श्रुत
पाठ रचना शैली के आधार पर श्रुत के दो भेद किये गये हैं - गमिक और अगमिक। अर्थपरिज्ञान के प्रकार को गम कहते हैं।282
नंदीसूत्र के अनुसार - आदि, मध्य और अन्त में किंचित् विशेषता के साथ पुनः-पुनः उसी सदृश सूत्रपाठ का उच्चारण गम कहलाता है। जिसमें गम/सदृश पाठ हो, वह गमिक है। दृष्टिवाद गमिक श्रुत है 83 दृष्टिवाद का बहुभाग प्रायः सदृश गमक (सरीखे सूत्रपाठ) वाला है। जिस श्रुत में बहुत भिन्नता लिए नये असदृश गमक (सूत्रपाठ) आते हैं, उस श्रुत को 'अगमिक' कहते हैं। कालिक सूत्र अगमिक है, क्योंकि आचारांग आदि सूत्रों का बहुभाग असदृश गमक वाला है।
विशेषावश्यभाष्य के अनुसार - जिस श्रुत में भंग और गणित बहुलता से हो अथवा जिसमें समान पाठ बहुत अधिक हो वह गमिक श्रुत है, ऐसा प्रायः दृष्टिवाद में होता है। जिसमें प्रायः गाथा, श्लोक, वेष्टक आदि अथवा असमान पाठ होते हैं, वह अगमिक श्रुत है। ऐसा प्रायः कालिक श्रुत में होता है। जिनभद्रगणि ने गम के तीन अर्थ किए है - भंग, गणितादि विषय और सदृश पाठ,284 आवश्यकचूर्णि में इन तीनों के अर्थ को स्पष्ट किया गया है - 1. भंग गमिक - एक भंग, दो भंग, तीन भंग आदि। 2. गणित गमिक - एक जीवा और धनुपृष्ठ के गणित के अनुसार अन्य जीवा और धनुपृष्ठ का भी गणित कर लेना चाहिए। 3. सदृश गमिक - क्रोध के उदय का निरोध करना चाहिए
और उदय प्राप्त क्रोध का विफलीकरण करना चाहिए। इसी प्रकार मान, माया, लोभ का निरोध और विफलीकरण करना चाहिए।85 इनमें से तीसरे अर्थ को जिनदासगणि, हरिभद्र, मलयगिरि और यशोविजय ने स्वीकार किया है। उनके अनुसार गमिक का अर्थ सदृश पाठ रचना शैली किया है 786
नंदीसूत्र में आचारांगादि के लिए भी अणंत गमा का उल्लेख किया है। उन ग्रंथों में भी गम तो हैं ही, लेकिन दृष्टिवाद की शैली गमप्रधान होने से वह गमिक है। जबिक आचारांगादि में गम का प्रमाण दृष्टिवाद की अपेक्षा से अल्प होने से अगमिक है। 13-14. अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य
नंदीसूत्र के अनुसार श्रुतज्ञान के संक्षेप में दो भेद हैं - 1. अंगप्रविष्ट और 2. अंगबाह्य । तत्त्वार्थसूत्र में भी इन्हीं दो भेदों का उल्लेख है। इनमें अंगबाह्य के अनेक भेद और अंगप्रविष्ट के बारह भेद हैं P8 श्रुतज्ञान के इन दोनों भेदों का भाष्यकार ने क्रम से उल्लेख किया है। अंग शब्द की व्यत्पुत्ति
अंगश्रुत यह गुणनाम है, क्योंकि, जो तीनों कालों के समस्त द्रव्यों और पर्यायों को अंगति' अर्थात् प्राप्त होता है या व्याप्त करता है, वह अंग है |89 'अञ्जयते' अर्थात् मध्यम पदों के द्वारा जो लक्षित होता है, वह अंग है, अथवा समस्त श्रुत के आचारादि रूप एक-एक अवयव को अंग कहते हैं 290 282. गमाः - अर्थपरिच्छितिप्रकाराः। - उत्तराध्ययन वृत्ति 283. से किं तं गमियं? गमियं दिट्ठिवाओ। - नंदीसूत्र, पृ. 160 284. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 549
285. आवश्यकचूर्णि भाग 1, पृ. 34 286. नंदीचूर्णि पृ. 88, हारिभद्रीय, नंदीवृत्ति, पृ. 91, मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 203, जैन तर्क पृ. 23 287. अहवा तं समासओ दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-अंगपविढं अंगबाहिरं च। - नंदीसूत्र पृ. 160 288. तत्त्वार्थसूत्र 1.20, सर्वार्थसिद्ध 1.20 289. अंगसुदमिदि गुणणामं, अंगति गच्छति व्याप्नोति त्रिकालगोचराशेषद्रव्य-पर्यायानित्यंगशब्दनिष्पत्तेः ।
- षट्खण्डागम पु. 9, सूत्र 4.1.45, पृ. 193-194 290. गोम्मटसार जीवकांड भाग 2, गाथा 350