Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
View full book text
________________
चर्तुथ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान
[21]
1. अंगप्रविष्ट आगम गणधर के द्वारा रचित होते हैं, जबकि अंगबाह्य आगम स्थविर के द्वारा रचित होते हैं।
2. गणधर द्वारा प्रश्न किए जाने पर तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट त्रिपदी (उत्पाद, व्यय, ध्रुव) के आधार पर गणधर द्वादशांगी की रचना करते हैं, वह श्रुत अंगप्रविष्ट कहलाता है, किन्तु बिना प्रश्न पूछे तीर्थंकर द्वारा जो श्रुत प्रतिपादित होता है, वह अंगबाह्य कहलाता है।
3. शाश्वत (नियत-ध्रुव) श्रुत अर्थात् जो श्रुत सभी तीर्थंकरों के तीर्थ में अवश्य होता है वह अंगप्रविष्ट एवं अशाश्वत (अनियत-अध्रुव) श्रुत अर्थात् जो श्रुत सभी तीर्थंकरों के तीर्थ में नहीं होता है, वह अंगबाह्य श्रुत कहलाता है।
जिनभद्रगणि ने अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के स्वरूप मात्र के उल्लेख किया है, लेकिन इनके भेदप्रभेदों का उल्लेख नहीं किया है। इसका कारण यह हो सकता है कि नंदीसूत्र आदि में इसका विस्तार से वर्णन प्राप्त होता है, अतः ग्रंथ का अनावश्यक कलेवर नहीं बढ़े इस कारण भाष्यकार ने उल्लेख नहीं किया हो। लेकिन इस शोधग्रंथ में अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के भेद-प्रभेद प्रसंगानुकूल हैं, अत: नंदीसूत्र आदि में जो उल्लेख प्राप्त होता है, उन्हीं की यहाँ समीक्षा प्रस्तुत की जा रही है। अंगबाह्य के दो भेद
अंगबाह्य के दो भेद हैं, यथा - 1. आवश्यक - नियमित कर्त्तव्य, 2. आवश्यक व्यतिरिक्त - आवश्यक से भिन्न 18 उक्त विभाजन से यह स्पष्ट होता है कि अंगबाह्य आगमों में आवश्यक सूत्र का प्रथम स्थान है। आवश्यक का स्वरूप और भेद
आवश्यक क्या है, इसके रचनाकार कौन हैं इसके कितने भेद हैं इत्यादि का विस्तार से उल्लेख प्रथम अध्याय में किया जा चुका है। आवश्यक व्यतिरिक्त के भेद
आवश्यक व्यतिरिक्त के दो भेद हैं - 1. कालिक-काल में ही पढ़ने योग्य 2. उत्कालिककाल उपरान्त में भी पढ़ने योग्य 20 कालिक और उत्कालिक सूत्र का विभाग सर्वप्रथम नंदी सूत्र में प्राप्त होता है। स्थानांग सूत्र में कालिक और उत्कालिक का उल्लेख मात्र मिलता है। 21
जिनभद्रगणि के अनुसार - जिनके स्वाध्याय का काल नियत हो वह कालिक है, शेष उत्कालिक है।22
नंदीचूर्णिकार के अनुसार - जो श्रुत दिन और रात के प्रथम और अन्तिम प्रहर में पढ़ा जाता है, वह कालिकश्रुत है। जिस सूत्र का पठन-पाठन/अध्ययन-अध्यापन काल की मर्यादा में बंधा हुआ नहीं है, वह उत्कालिक सूत्र है ।23
मलधारी हेमचन्द्र के अनुसार - ग्यारह अंग काल-ग्रहण आदि की दृष्टि से पढे जाते थे, इसलिए उनकी संज्ञा कालिक है। कालिकश्रुत में प्रायः चरणकरणानुयोग का प्रतिपादन है, इसलिए भाष्यकार ने चरणकरणानुयोग के स्थान पर कालिकश्रुत का प्रयोग किया है।24 इसका कारण पूर्व 319. प्रथम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति : एक परिचय, पृ. 1-9 320. आवस्सयवइरित्तं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-कालियं च, उक्कालियं च। - पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 226 321. स्थानांगसूत्र स्था. 2 उ. 1, सू. 106, पृ. 37
___322. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 2294-95 323. कालियं जं दिणरातीणं पढमचरिमपोरिसीसु पढिजति । जं पुण कालवेलवजं पढिज्जति तं उक्कालियं। -नंदीचूर्णि, पृ. 88 324. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 2294-2295 की बृहद्वृत्ति