Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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[212] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन ज्ञान की अविच्छिन्न रूप से स्थिति धारणा कहलाती है। यहाँ अविच्युति को उपलक्षण से मानते हुए अविच्युति, वासना (संस्कार) और स्मृति इन तीनों को धारणा रूप स्वीकार किया गया है। धारणा के सम्बन्ध में अन्य दर्शनों की ओर से शंका प्रस्तुत की है कि अविच्युति, स्मृति गृहीतग्राही होने से तथा वासना संख्यात/असंख्यात काल की होने से धारणा रूप नहीं हो सकती है, अत: मतिज्ञान का धारणा रूपी भेद घटित नहीं होने से मतिज्ञान के तीन ही भेद प्राप्त होंगे, चार नहीं। जिनभद्रगणि ने इसका युक्तियुक्त समाधान करते हुए मतिज्ञान के चार भेदों की सिद्धि की है। पूर्व भव में जो शब्द आदि रूपी-अरूपी पदार्थों का ज्ञान किया था, उसका वर्तमान भव में स्मरण में आना जातिस्मरण ज्ञान है। यह धारणा के तीसरे भेद स्मृति में समाविष्ट होता है।
अवग्रह आदि के काल के सम्बन्ध में उल्लेख करते हुए अवग्रहादि का काल निर्धारित करते हुए जिनभद्रगणि ने नैश्चयिक अर्थावग्रह का काल एक समय, व्यंजनावग्रह तथा व्यावहारिक अर्थावग्रह का काल अन्तर्मुहूर्त, ईहा और अपाय का काल अन्तर्मुहूर्त, अविच्युति और स्मृति रूप धारणा का काल भी अन्तर्मुहूर्त, वासना रूप धारणा का काल संख्यात, असंख्यात काल तक माना है। हरिभद्रसूरि नैश्चयिक अर्थावग्रह का कालमान एक समय और सांव्यवहारिक अर्थावग्रह का समय अन्तर्मुहूर्त मानते हैं। कमल के सौ पत्ते छेदन का उदाहरण देते हुए जिनभद्रगणि ने अवग्रह आदि के निश्चित्त क्रम को समझाया है।
अवग्रह, ईहा, अवाय एवं धारणा ज्ञान में प्रत्येक के बहु, अल्प, बहुविध, अल्पविध आदि बारह भेद होते हैं। आचार्यों ने जो इनकी भांति-भांति से चर्चा की है, उसे भी शोध-प्रबन्ध में स्थान दिया गया है।
द्रव्यादि की अपेक्षा मतिज्ञान के विषय का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि मतिज्ञानी सर्व द्रव्यों को जानते और देखते हैं। यहाँ सर्व शब्द आदेश की अपेक्षा से प्रयुक्त हुआ है। आदेश सामान्य और विशेष दोनों प्रकार से प्रयुक्त होता है। भगवतीसूत्र में 'आएसेणं सव्वदव्वाइं जाणइ, पासइ' जबकि नंदीसूत्र के पाठ में 'आएसेणं सव्वाइं दव्वाइं जाणइ ण पासइ' अर्थात् भगवती में तो 'पासइ' और नंदीसूत्र में 'ण पासइ' क्रिया का प्रयोग हुआ है। इस विसंगति का समाधान भगवतीसूत्र के टीकाकार अभयदेवसूरि के अनुसार करते हुए दोनों क्रियाओं के प्रयोग को अपेक्षा विशेष से सही ठहराया गया है। इसी प्रकार क्षेत्र, काल और भाव में प्रयुक्त सर्व शब्द का अर्थ समझना चाहिए।
सत्पदप्ररूपणा, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्र, स्पर्शना, काल, अन्तर, भाग, भाव और अल्पबहुत्व इन नौ द्वारों के माध्यम से मतिज्ञान का वर्णन किया गया है। सत्पदप्ररूपणा के अन्तर्गत गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय आदि 20 द्वारों के माध्यम से मतिज्ञान की चर्चा की गई है। यह उल्लेख पूर्वप्रतिपन्न (भूतकाल का ज्ञान की अपेक्षा से) और प्रतिपद्यमान (वर्तमान के एक समय का ज्ञान) की अपेक्षा से किया गया है। पूर्वप्रतिपन्न में पूर्व में प्राप्त मतिज्ञान की विवक्षा है और प्रतिपद्यमान में वर्तमान के एक समय में नवीन मतिज्ञान उत्पन्न हो रहा है अथवा नहीं, इसकी विवक्षा है।
मतिज्ञान के सम्बन्ध में विशिष्ट उल्लेख -
1. ज्ञान के अवग्रहादि भेद विषय-ग्रहण की एक प्रक्रिया है, जो निम्न प्रकार से हैं - सर्वप्रथम इंद्रिय और अर्थ का योग्य देश में अवस्थान -> दर्शन (सत्ता मात्र का ग्रहण) -> व्यंजनावग्रह (इंद्रिय और अर्थ के सम्बन्ध का ज्ञान) -> अर्थावग्रह (अर्थ का ग्रहण, जैसे की