Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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________________ [116] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन ज्ञान और दर्शन में अन्तर - 1. ज्ञान में प्रमाणता होती है और दर्शन में प्रमाणता नहीं है। 2. ज्ञान विशेष ग्रहण करने वाला जबकि दर्शन सामान्य ग्रहण करने वाला होता है। 3. ज्ञान विद्यमान और अविद्यमान दोनों प्रकार के पदार्थों के सम्बन्ध में होता है जबकि दर्शन केवल विद्यमान पदार्थों के सम्बन्ध में ही होता है। ज्ञान के पांच प्रकार हैं, यथा 1. आभिनिबोधिकज्ञान, 2. श्रुतज्ञान, 3. अवधिज्ञान, 4 मन:पर्यवज्ञान, 5. केवलज्ञान। तीन अज्ञान हैं -1. मति अज्ञान, 2. श्रुत अज्ञान और विभंग ज्ञान। दर्शन के चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल दर्शन ये चार भेद होते हैं। वैसे तो दर्शन के ये ही चार भेद प्रसिद्ध है, परन्तु स्थानांग सूत्र स्थान 8 में दर्शन के आठ प्रकारों का भी उल्लेख है, यथा - सम्यग-दर्शन, मिथ्या दर्शन, सममिथ्या दर्शन, यानी मिश्र दर्शन, चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन, अवधि दर्शन, केवल दर्शन और स्वप्न दर्शन। दर्शन में विकल्प का अभाव होने से वह मिथ्या नहीं होता है, जबकि ज्ञान विकल्प सहित होता है, इसलिए वह मिथ्या रूप भी होता है। मिथ्यात्व के कारण ही ज्ञान अज्ञान रूप होता है। अज्ञान में से मिथ्यात्व निकाल देने पर वही ज्ञान रूप में परिणत हो जाता है। ___ मिथ्यादृष्टि का ज्ञान सत्-असत् के विवेक से रहित होने से संसार का कारण होता है। इसलिए वह अज्ञान रूप है जबकि सम्यग्दृष्टि का ज्ञान सत्-असत् के विवेक सहित होने से मोक्ष का कारण होता है, इसलिए वह ज्ञान रूप में स्वीकार किया गया है। प्राचीन आगम परम्परा में मति आदि पांच ज्ञानों का उल्लेख प्राप्त होता है। दार्शनिक परम्परा के आचार्यों ने मति आदि पांच ज्ञानों को प्रत्यक्ष और परोक्ष के रूप में विभाजित किया है, जिसमें प्रथम दो ज्ञान का परोक्ष और शेष तीन ज्ञानों का प्रत्यक्ष में ग्रहण किया है। इन्द्रिय और मन की सहायता से आत्मा को जो ज्ञान होता है, वह परोक्ष है तथा इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना आत्मा को जो ज्ञान होता है, वह प्रत्यक्ष है। वैशेषिकदर्शन के अनुसार अक्ष का अर्थ इन्द्रिय है और इन्द्रियों से होने वाला ज्ञान ही प्रत्यक्ष है, शेष ज्ञान परोक्ष है। जिनभद्रगणि कहते हैं कि इन्द्रियों से उत्पन्न हुए ज्ञान की स्मृति आत्मा में इन्द्रियों के नष्टादि होने पर भी होती है। यदि इन्द्रियाँ ही ज्ञाता होती तो उन (इन्द्रियों) के नष्ट होने पर आत्मा को ज्ञान नहीं होना चाहिए, लेकिन होता है। अतः आत्मा ही जानती है, इन्द्रियाँ नहीं। इन्द्रिय ज्ञान को प्रत्यक्ष मानने में कोई दोष नहीं है। अकलंक ने इसका युक्तियुक्त समाधान किया है। कालक्रम से प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद किए हैं - 1. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और 2. पारमार्थिक प्रत्यक्ष। परोक्ष प्रमाण के पांच भेद किए गए हैं - 1. स्मृति, 2. प्रत्यभिज्ञान, 3. तर्क, 4. अनुमान और 5. आगम। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के दो भेद प्रतिपादित किए गये हैं - 1. इन्द्रिय प्रत्यक्ष और 2. अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष। पारमार्थिक प्रत्यक्ष के पुनः तीन भेद किए गए हैं - 1. अवधिज्ञान, 2. मन:पर्यवज्ञान और 3. केवलज्ञान। इस प्रकार जैनसाहित्य में पांच ज्ञान का विचार आगम शैली, तर्क शैली, दर्शन शैली से किया गया है। मति आदि पांच ज्ञानों का जो क्रम रखा गया है, वह स्वामी, काल, विषय आदि के आधार से है। अन्त में केवलज्ञान को रखने कारण यह है कि केवलज्ञान में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान