Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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________________ [118] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन क्षेत्र से आये हुए गंध-रस और स्पर्श रूप अर्थ को ग्रहण करती हैं। इससे अधिक दूर से आये हुए शब्द और गंधादि विषय मंदपरिणाम वाले होने से इन्द्रियों के विषय नहीं बनते हैं। श्रोत्रेन्द्रिय का विषय शब्द (भाषा) है। जो बोली जाती है, वह भाषा है, अथवा वक्ता जिसको शब्द रूप में छोड़े वह द्रव्य समूह भाषा है। जो व्यक्ति समश्रेणी में रहे हुए शब्द को सुनता है, तो वह मिश्र शब्द सुनता है अर्थात् जो श्रोता छहों दिशाओं में से किसी भी दिशा में, यदि वक्ता की समश्रेणी में रहा हुआ हो, तो वह जो शब्द सुनता है, वह मिश्रित सुनता है। भाषा का ग्रहण काययोग से होता है, उसका विसर्जन वचनयोग से होता है। कितने समय में भाषा पूरे लोक को पूरित करती है, इस सम्बन्ध में प्राप्त मतान्तरों को स्पष्ट किया गया है। परोक्ष ज्ञान में इन्द्रिय के बाद मन का सहयोग भी अपेक्षित है। अतः परोक्ष ज्ञान का दूसरा मुख्य साधन मन है। सभी भारतीय दर्शनों ने मन के अस्तित्व को स्वीकार किया है। जिसके द्वारा पदार्थों का मनन किया जाता है, वह मन कहलाता है। मन दो प्रकार का होता है, द्रव्य मन (पौद्गलिक) और भाव मन (चेतनामय)। मन:पर्याप्ति नाम कर्म के उदय से जब मनोद्रव्य को ग्रहण करके मन रूप में परिणत किया जाता है, तो वह द्रव्य मन कहलाता है तथा मनोद्रव्य के आलम्बन से जीव के मन का व्यापार 'भाव मन' कहलाता है। ___ द्रव्यमन के बिना भावमन नहीं होता। किन्तु भाव मन के बिना द्रव्यमन हो सकता है। जैसे भवस्थ केवली के द्रव्यमन होता है, भावमन नहीं। भाव मन के अनुसार ही द्रव्य मन के परिणाम होते हैं, वैसे ही द्रव्यमन भावमन का आधार होता है। द्रव्यमन के बिना भावमन अपना कार्य नहीं कर सकता है। मनःपर्यवज्ञानी भी द्रव्यमन को ही जानते हैं। वैशेषिक मन को परमाणु रूप, सांख्यदर्शन अणुरूप तथा बौद्ध-जैन के अनुसार मन मध्यम परिमाणी है। जैनदर्शन के अनुसार भाव मन का स्थान आत्मा है, किन्तु द्रव्य मन के सम्बन्ध में एक मत नहीं है। दिगम्बर परम्परा द्रव्य मन को हृदय में मानती है, किन्तु श्वेताम्बर परम्परा के व्याख्या साहित्य के अनुसार द्रव्य मन का स्थान सम्पूर्ण शरीर है। मन मात्र संज्ञी जीवों के होता है, संज्ञी जीव दीर्घकालिकोपदेशिकी संज्ञा, हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा, दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा की अपेक्षा तीन प्रकार के होते हैं, किन्तु यहां पर मन के जो अधिकारी हैं, वे दीर्घकालिकी संज्ञा की अपेक्षा से ही हैं, क्योंकि जिसके द्वारा अतीत की स्मृति और भविष्य की चिन्ता (कल्पना) की जाती है, वह दीर्घकालिकी संज्ञा है। आगमानुसार एकेन्द्रिय जीवों के भाव मन नहीं होता है। इन्द्रियाँ केवल मूर्त्तद्रव्य की वर्तमान पर्याय को जानती हैं, मन मूर्त और अमूर्त त्रैकालिक अनेक रूपों को जानता है, क्योंकि मन का विषय प्रतिनियत नहीं है, वह दूर-निकट सर्वत्र प्रवृत्त होता रहता है। मन प्रवृत्त होते ही अर्थ की उपलब्धि करता है, और अर्थ की उपलब्धि व्यंजनावग्रह में नहीं, अर्थावग्रह में प्रारंभ होती है, अतएव मन से व्यंजनावग्रह मानना योग्य नहीं। इसके सम्बन्ध में नंदी, षट्खण्डागम और तत्त्वार्थसूत्र की परम्परा के आचार्य एक मत हैं। __ज्ञान का अंतिम साधन आत्मा है। आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञान का साधन है। आत्मा ज्ञाता (जानने) और द्रष्टा (देखने) होता है। आत्मा वर्ण गन्ध आदि से रहित होता है, आत्मा के छह गुण होते हैं