Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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________________ तृतीय अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान [123] पंचसंग्रहकार के अनुसार - अनिन्द्रिय अर्थात् मन और इन्द्रियों की सहायता से उत्पन्न होने वाले, अभिमुख और नियमित पदार्थ के बोध को आभिनिबोधिक ज्ञान कहते हैं।” मति अज्ञान - परोपदेश के बिना जो विष, यन्त्र, कूट, पंजर तथा बन्ध आदि के विषय में बुद्धि प्रवृत्त होती है, उसे मति अज्ञान कहते हैं। वीरसेनाचार्य (नवम शती) के अनुसार - अभिमुख तथा नियमित अर्थ के बोध को आभिनिबोधि कहा जाता है। स्थूल, वर्तमान तथा अनन्तरित अर्थात् व्यवधान रहित अर्थ 'अभिमुख' तथा 'इस इन्द्रिय का यही विषय है' इस प्रकार के नियम से युक्त अर्थ 'नियमित' है। चक्षुरिन्द्रिय के रूप, श्रोत्रेन्द्रिय में शब्द, जिव्हेन्द्रिय में रस, स्पर्शनेन्द्रिय में स्पर्श तथा मन के दुष्ट, श्रुत तथा अनुभूत अर्थ नियमित है। इस प्रकार अभिमुख तथा नियत अर्थ में होने वाला बोध ही आभिनिबोधिक ज्ञान है,19 ऐसा ही उल्लेख धवला पु. 13 में भी प्राप्त होता है। नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती (एकादश शती) के कथनानुसार - 1. स्थूल, वर्तमान और योग्यदेश में स्थित अर्थ को अभिमुख कहते हैं। इस इन्द्रिय का यही विषय है, इस अवधारणा को नियमित कहते हैं। अभिमुख और नियमित को अभिमुख नियमित कहते हैं। उस अर्थ के बोधन अर्थात् ज्ञान को मतिज्ञान कहते हैं। 2. मतिज्ञान के आवरण के क्षयोपशम से तथा वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से और बहिरंग पांच इन्द्रिय तथा मन के अवलम्बन से मूर्त और अमूर्तवस्तु को एक देश से विकल्पाकार परोक्ष रूप से अथवा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष रूप से जो जानता है, वह क्षायोपशमिक मतिज्ञान है। अभयचन्द्रसिद्धान्त चक्रवर्ती के अनुसार - पांच इन्द्रियों तथा मन की सहायता से होने वाला मननरूप ज्ञान मतिज्ञान है। मतिज्ञान के पर्यायवाची जैन आगम एवं व्याख्या ग्रंथों में मतिज्ञान के लिए समय-समय पर विभिन शब्दों का प्रयोग हुआ है, जिसे हम मुख रूप से तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं - 1. आवश्यकनियुक्ति, नंदीसूत्र और विशेषावश्यकभाष्य, 2. षट्खण्डागम और 3. तत्त्वार्थसूत्र। 1. आवश्यकनियुक्ति आदि में 1. ईहा, 2 अपोह (अवाय), 3. विमर्श, 4. मार्गणा, 5. गवेषणा, 6. संज्ञा, 7. स्मृति, 8. मति, 9. प्रज्ञा - ये सभी सामान्यतया आभिनिबोधिक ज्ञान के नाम हैं। जो गाथा आवश्यकनियुक्ति में प्राप्त होती है, वही गाथा नंदीसूत्र और विशेषावश्यकभाष्य में भी प्राप्त होती है। ईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा य गवेसणा। सण्णा सई मई पण्णा, सव्वं आभिणिबोहियं॥ 17. अहिमुहणियमियबोहणमाभिणिबोहियमणिंदि-इंदियजं। - पंचसंग्रह, गाथा 121, पृ. 26 18. विस-जंत-कूड-पंजर-बंधादिसु अणुवदेसकरणेण / जा खलु पवत्तई मई णइअण्णाण त्ति णं विंति। -पंचसंग्रह, गाथा 118, पृ. 25 19. षट्खण्डागम (धवला), पु. 6, सूत्र 1.9.1.14, पृ. 15 20. तत्थ अहिमुह-णियमिदत्थस्य बोहणमाभिणिबोहियं णाम णाणं। षटखण्डागम (धवला) पु. 13 सूत्र 5.5.21 पृ. 209 21. अहिमुहणियमियबोहणमाभिणिबोहियमणिंदिइंजयं। गोम्मटसार (जीवकांड), भाग 2, गाथा 306 22. आचार्य नेमिचन्द्र कृत 'बृहत् द्रव्यसंग्रह' गााथा 5 की टीका पृ. 12-13 23. तत्र पंचभिरिन्द्रियैर्मनसा च मननं ज्ञानं मतिज्ञानं। - अभयचन्द्रसिद्धान्त चक्रवर्तीकृत, कर्मप्रकृति, पृ.16 24. आवश्यकनियुक्ति गाथा 12, नंदीसूत्र गाथा 71 पृ. 144, विशेषावश्यकभाष्य गाथा 396