Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
View full book text
________________
[164] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
गोम्मटसार में जो विषय इन्द्रिय के निकट प्राप्त होकर स्पर्शित होता है, वह व्यंजन कहा गया है। जो प्राप्त नहीं होता वह अर्थ कहलाता है। लेकिन सिद्धसेनगणि द्वारा विरचित तत्त्वार्थसूत्र की टीका के अनुसार व्यंजन नाम अव्यक्त शब्दादि का है। यहाँ प्राप्त अर्थ को व्यंजन कैसे कहा है? इसका समाधान यह है कि व्यंजन शब्द के दो अर्थ हैं - अंजन और व्यंजन। दूर होता है वह अंजन
और व्यक्त भाव को व्यंजन कहते हैं। 'व्यज्यते भ्रक्ष्यते प्राप्यते इति व्यंजनं' जो प्राप्त होता है उसे व्यंजन कहते हैं, इसलिए यहाँ इस अर्थ को ग्रहण किया है। 'अंजु' धातु गति, व्यक्ति, भक्षण अर्थ में प्रयुक्त होती है। यहाँ 'व्यक्त' के भक्षण अर्थ का ग्रहण करते हैं, करणादिक इन्द्रियनिकारि शब्दादिक अर्थ प्राप्त होते हुए भी व्यक्त नहीं होते इसलिए व्यंजनावग्रह है, व्यक्त होने पर अर्थावग्रह होता है। जैसेकि माटी का नया सकोरा जल के दो तीन बूंदों से सींचने पर गीला नहीं होता और पुन:पुनः सींचने पर धीरे-धीरे गीला हो जाता है। इसी प्रकार श्रोत्रादि इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये गये शब्दादि रूप पुद्गल स्कंध दो तीन समयों में व्यक्त नहीं होते हैं। किन्तु पुनः पुनः ग्रहण होने पर व्यक्त हो जाते हैं। इससे सिद्ध हुआ कि व्यक्त ग्रहण से पहिले-पहिले व्यंजनावग्रह होता है और व्यक्त ग्रहण का नाम (या व्यक्त ग्रहण हो जाने पर) अर्थावग्रह है। अव्यक्त अवग्रह से ईहा आदि नहीं होते हैं।07
वीरसेनाचार्य ने धवलाटीका में शंका करते हुए कहा कि अवग्रह निर्णय रूप होता है या अनिर्णय रूप होता है। यदि वह निर्णय रूप होता है तो उसका अवाय में अन्तर्भाव होना चाहिए और यदि वह अनिर्णय रूप होता है तो वह प्रमाण नहीं हो सकता। इस शंका के समाधान के लिए अवग्रह के दो भेद विशद अवग्रह और अविशद अवग्रह मान कर विशदावग्रह निर्णयात्मक होते हुए भी ईहा, अवाय आदि निर्णयात्मक ज्ञानों से पृथक् होता है, ऐसा उल्लेख किया है।
समीक्षा - व्यंजनावग्रह के स्वरूप को लेकर जो उपर्युक्त मतों का विवेचन किया गया है, उनमें कोई विरोध प्रतीत नहीं होता है अपितु इन तीनों से व्यंजनावग्रह के स्वरूप का स्पष्टीकरण होता है। इन मतों से स्पष्ट होता है कि चक्षु एवं मन से व्यंजनावग्रह स्वीकार नहीं किया गया है अर्थात् व्यंजनावग्रह तभी होता है, जब अर्थ का इन्द्रिय से स्पर्श हो, अर्थ इन्द्रिय को प्राप्त हो। इन्द्रिय एवं अर्थ में स्पृष्टता नहीं होने पर व्यंजनावग्रह नहीं होता है। दूसरी बात यह है कि व्यंजनावग्रह में अर्थ का ग्रहण होता है, वह अव्यक्त होता है, अस्पष्ट होता है। तीसरी विशेषता यह है कि यह व्यंजन अर्थात् उपकरणेन्द्रिय एवं अर्थ का संयोग होने पर ही होता है। इसमें ज्ञान का ऐसा अनुभव नहीं होता है कि जिसे व्यक्त किया जा सके। जिनभद्रगणि ने व्यंजनावग्रह को उपचार से ज्ञानात्मक माना है। अर्थावग्रह व व्यंजनावग्रह में प्रमुख अन्तर
उपर्युक्त अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह में मतभेद के आलावा भी दोनों में कुछ अन्तर है, जो कि निम्नांकित है -
1. अर्थावग्रह पटुक्रमी होता है जबकि व्यंजनावग्रह मन्दक्रमी होता है।
2. अर्थावग्रह अभ्यस्तावस्था तथा विशिष्ट क्षयोपशम की अपेक्षा रखता है, जबकि व्यंजनावग्रह अनभ्यस्तावस्था तथा क्षयोपशम की मन्दता में भी होता है।
3. अर्थावग्रह के द्वारा अत्यल्प समय में ही वस्तु की पर्याय का ग्रहण हो जाता है। लेकिन व्यंजनावग्रह में अत्यल्प समय में नहीं अल्प समयों में पर्याय का “यह कुछ है" ज्ञान होता है।08
4. व्यंजानवग्रह में व्यंजन का सम्बन्ध मात्र होता है, अर्थावग्रह में अव्यक्त शब्दादि वस्तु का ग्रहण होता है, किन्तु वहाँ व्यक्त शब्दादि पदार्थों का ज्ञान नहीं होता है। 307. गोम्मटसार जीवकांड-जीवतत्त्वदीपिका टीका गाथा 307 पृ. 660
308. मलयगिरि पृ. 169