Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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तृतीय अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान
[185] नंदी की हारिभद्रीय टीका के अनुसार अविच्युति का उपयोग काल अन्तर्मुहूर्त और स्मृति का उपयोग काल अन्तर्मुहूर्त के बाद स्वीकार किया गया है। जैसे किसी का वर्तमान में दशवैकालिक सूत्र में उपयोग नहीं है, किन्तु स्मृति में है। इस व्याख्या से स्मृति का काल संख्यात काल और असंख्यात काल का हो सकता है। स्मृति जब धूमिल हो जाए और कुछ-कुछ संस्कार रहे, जैसे कोई परिचित सा व्यक्ति लगता है, किन्तु याद नहीं आ रहा है, वह वासना है। कोई प्रसंग निमित्त से याद दिलाने पर वह वासना तेज हो कर याद आ जाता है, वह स्मृति हो गई। वासना लब्धि रूप है, किन्तु स्मृति रूप नहीं है। जबकि मलयगिरि ने वासना रूप धारणा की स्थिति संख्यात, असंख्यात काल की तथा अविच्युति स्मृति की स्थिति अन्तर्मुहूर्त की स्वीकार की है।49
यदि किसी को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न होता है, तो वह भी धारणा (स्मृति) की प्रबलता से हो सकता है। प्रत्यभिज्ञान भी इसी की देन है। अवाय हो जाने के पश्चात् फिर भी उपयोग यदि उसी में लगा हुआ हो, तो उसे अवाय नहीं, अपितु अविच्युति धारणा कहते हैं। स्मृति का प्रामाण्य
वैदिकदर्शन में स्मृति गृहीतग्राही होने से प्रमाण नहीं है।450 बौद्धदर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाण होते हैं, इसलिए स्मृति प्रमाण नहीं है। अकलंक, विद्यानंद आदि जैनाचार्यों ने इन मतों का खण्डन करते हुए स्मृति का प्रामाण्य सिद्ध किया है। यदि स्मृति को प्रमाण रूप में स्वीकार नहीं करेंगे तो उसके बाद होने वाले संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान), चिंता, तर्क और अनुमान के उपरांत प्रत्यक्ष भी अप्रमाण रूप हो जाएगा।51 अतः स्मृति के गृहीतग्राही होने से इसका प्रामाण्य नहीं मानेंगे तो प्रत्यभिज्ञान, अनुमान और अनुमानोत्तर प्रमाण भी अप्रमाण मानने होंगे, क्योंकि वे भी आंशिक रूप से गृहीतग्राही हैं। धारणा के सम्बन्ध में मतान्तर
धारणा के स्वरूप के सम्बन्ध में दो मत मिलते हैं -
1. पूज्यपाद के अनुसार - अवाय द्वारा वस्तु के निश्चित ज्ञान का कालान्तर में विस्मरण नहीं होता है, धारणा है। ऐसा ही उल्लेख अकलंक'54 ने भी किया है। अकलंक आदि के अनुसार स्मृति का कारण संस्कार है, जो ज्ञानरूप है, उसी को धारणा के रूप में स्वीकार किया गया है अर्थात् धारणा को वासना (संस्कार) रूप में स्वीकार करते हैं, इस प्रकार दिगम्बर परम्परा में वासना को ही धारणा के रूप में स्वीकार किया गया है। जिसका विद्यानंद'55 अन्तवीर्य, प्रभाचन्द्र आदि ने समर्थन किया है। जबकि श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार संस्कार कर्म-क्षयोपशमरूप होने से आत्मा की शक्ति विशेष मात्र है, ज्ञान रूप नहीं है।
2. जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण के अनुसार - 'अविच्चुई धारणा तस्स' अर्थात् निर्णयात्मक ज्ञान की अविच्छिन्न रूप से स्थिति धारणा कहलाती है। 56 यहाँ अविच्चुति को उपलक्षण से मानते हुए 448. धारणासंख्येयंवाऽकालं स्मृतिवासनारूपा। - हारिभद्रीय, नंदीवृत्ति, पृ. 65 449. सा च धारणा संख्येयमसंख्येयं वा फालं यावद्वासनारूपा द्रष्टव्या, अविच्युतिस्मृत्योरजघन्योत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तप्रमाणत्वात् ।
- मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 178 450, प्रमाणमीमांसा भाषा टिप्पण पृ. 73-74 4 51. श्लोकवार्तिक 1.13.9.10,15 452. न्यायकुमुद पृ. 408
453. अवेतस्यकालान्तरेऽविस्मरणकारणं धारणा। - सर्वार्थसिद्धि, 1.15 पृ. 79 454. निर्मातार्थऽविस्मृतिर्धारणा। राजावर्तिक 1.15.4 455. स्मृतिहेतुः सा धारणा। श्लोकवार्तिक 1.15.4
456. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 180