Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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तृतीय अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान
[203] अपेक्षा से यह नहीं होता है। मतिज्ञान लब्धि रूप है, लब्धि की प्राप्ति दर्शनोपयोग में नहीं होती है। केवलदर्शन में दोनों अपेक्षा से मतिज्ञान नहीं होता है।
11. संयत द्वार - संयत में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा मतिज्ञान की नियमा और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से भजना होती है। यहाँ यह शंका होती है कि संयमी को सम्यक्त्व प्राप्ति की अवस्था में मतिज्ञान की प्राप्ति होती है तो उसकी प्रतिपद्यमान की अपेक्षा कैसे प्राप्ति होती है, यह शंका सही है, लेकिन किसी को अतिविशुद्धि से सम्यक्त्व के साथ ही चारित्र की प्राप्ति होती है, इस अवस्था में संयम प्राप्त होते ही मतिज्ञान भी प्राप्त होता है। नो संयत नो असंयत नो संयतासंयत में भी मतिज्ञान नहीं होता है।
12. उपयोग द्वार - उपयोग के दो प्रकार होते हैं - साकारोपयोग और अनाकारोपयोग। पांच ज्ञान और तीन अज्ञान साकारोपयोग और चार दर्शन अनाकारोपयोग रूप होता है। साकारोपयोग में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा मतिज्ञान की नियमा और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से भजना होती है।
अनाकारोपयोग में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा से मतिज्ञान हो सकता है और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से मतिज्ञान नहीं होता है। क्योंकि कतिपय अनाकार उपयोग वाले जीव पूर्व में मतिज्ञान को प्राप्त किये हुए हो सकते हैं, लेकिन प्रतिपद्यमान में मतिज्ञान लब्धिस्वरूप होने से उसकी उत्पत्ति अनाकार उपयोग में नहीं हो सकती है। ___13. आहार द्वार - आहारक में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा मतिज्ञान की नियमा और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से भजना होती है। अनाहारक (विग्रह गति) में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा से मतिज्ञान की भजना है और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से मतिज्ञान नहीं होता है। जो अनाहारी देव आदि पूर्वभव में समकित आदि प्राप्त करके मनुष्य गति में आते हैं, तो उनको पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा से मतिज्ञान होता है, लेकिन प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से नहीं होता है, क्योंकि अनाहारक अवस्था में तथाप्रकार की विशुद्धि नहीं होती है।
14. भाषक द्वार - भाषक (बोलने वाले) और अभाषक ये दो प्रकार होता है। भाषालब्धि वाले पंचेन्द्रियादि जाति की अपेक्षा से भाषक में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा मतिज्ञान की नियमा और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से भजना होती है। अभाषक (एकेन्द्रिय की अपेक्षा) मतिज्ञान दोनों अवस्थाओं में नहीं होता है।
15. परित्त द्वार - इसके तीन प्रकार हैं - 1. परित्त - इसके दो अर्थ होते हैं - 1. शुक्लपाक्षिक (संसार काल अर्ध पुद्गल परावर्तन जितना शेष रहा)बनने के बाद जिन्होंने एक बार समकित प्राप्त कर ली है। 2. अथवा प्रत्येक शरीरी जीव। यहाँ प्रथम अर्थ ग्रहण किया गया है। 2. अपरित्त - इसके दो अर्थ होते हैं - 1. जिनका संसार काल अर्ध पुद्गल परावर्तन से अधिक शेष है अर्थात् जिन्होंने एक बार भी समकित प्राप्त नहीं की है। 2. अथवा साधारण शरीरी (अनन्तकायिक वनस्पति) जीव। यहाँ प्रथम अर्थ ग्रहण किया गया है।33 3. नो परित्त नो अपरित्त - उपर्युक्त दोनों लक्षणों से भिन्न सिद्ध भगवान्।
परित्त के दोनों अर्थ में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा मतिज्ञान की नियमा और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से भजना होती है। अपरित्त और नो परित्त नो अपरित्त (सिद्ध) में दोनों अवस्थाओं में मतिज्ञान नहीं होता है। 533. मलयगिरि, आवश्यकवृत्ति, पृ. 42