Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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तृतीय अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान
[201] __1. गति द्वार - गति की अपेक्षा से चारों गतियों - नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति के जीव मतिज्ञान के अधिकारी हैं। चारों गतियों में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा से मतिज्ञान की नियमा और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से मतिज्ञान की भजना है। सिद्ध गति में मतिज्ञान नहीं होता है।
2. इन्द्रिय द्वार - द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चउरिन्द्रिय में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा से मतिज्ञान की भजना है और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से मतिज्ञान नहीं होता है। क्योंकि जो विकलेन्द्रिय सास्वादन समकित सहित पूर्वभव से आये हुए हो सकते हैं इसलिए पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा मतिज्ञान की भजना, किन्तु प्रतिपद्यमान में वैसी विशुद्धि नहीं होने से उसको मतिज्ञान नहीं होता है, मति अज्ञान होता है। पंचेन्द्रिय में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा से मतिज्ञान की नियमा और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से मतिज्ञान की भजना है। अनिन्द्रिय और सिद्धों में नियम से केवलज्ञान होता है, अतः इनमें मतिज्ञान नहीं होता है।
सिद्धान्त के अनुसार एकेन्द्रिय में मतिज्ञान नहीं होकर मति-अज्ञान होता है, किन्तु कर्मग्रंथ के अनुसार लब्धिपर्याप्त एकेन्द्रिय (बादर पृथ्वी, अप्काय और वनस्पतिकाय) में जो करण अपर्याप्त हैं, उनमें पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा से मतिज्ञान की भजना है, क्योंकि इनमें पूर्व भव से लाई हुई सास्वादन समकित हो होती है।
3. काय द्वार - पृथ्वी आदि पांच कायों के जीवों में पूर्वप्रतिपन्न और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से मतिज्ञान नहीं होता है। त्रसकाय में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा से मतिज्ञान की नियमा और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से मतिज्ञान की भजना है। यह मान्यता आगम की है। अकाय में मतिज्ञान नहीं होता है।
कर्मग्रन्थानुसार लब्धि-पर्याप्त बादर पृथ्वी, पानी, वनस्पति में तथा करण से अपर्याप्त जीव (सास्वादन सम्यक्त्व की अपेक्षा से) में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा मतिज्ञान की भजना है और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से मतिज्ञान नहीं होता है। तेजस्काय और वायुकाय में पूर्वप्रतिपन्न और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से मतिज्ञान नहीं होता है।
4. योग द्वार - मनयोग सहित वचन और काया से युक्त सयोगी में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा से मतिज्ञान की नियमा और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से मतिज्ञान की भजना है। वचन और काययोग इन दो योगों से युक्त जीवों को विकलेन्द्रिय के समान समझना चाहिए। एक काययोग वाले जीवों को एकेन्द्रिय के समान समझना चाहिए। अयोगी में भी मतिज्ञान नहीं होता है।
5. वेद द्वार - स्त्रीवेद, पुरुष और नपुसंक वेद इन तीन वेदों में मतिज्ञान पंचेन्द्रिय के समान मान्य है, अवेदी में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा से मतिज्ञान की भजना है क्योंकि जो छद्मस्थ होता है, उसमें मतिज्ञान होता है और जो केवली होता है, उसमें मतिज्ञान नहीं होता है। प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से मतिज्ञान नहीं होता है, क्योंकि जिन्होंने पहले मतिज्ञान प्राप्त किया है, वे ही उपशम और क्षपक श्रेणी को प्राप्त करके अवेदी होते हैं।
6. कषाय द्वार - अनन्तानुबंधी चतुष्क में सास्वादन समकित की अपेक्षा से पूर्वप्रतिपन्न में मतिज्ञान की नियमा है और प्रतिपद्यमान में मतिज्ञान नहीं होता है। अप्रत्याख्यानी चतुष्क, प्रत्याख्यानावरण चतुष्क और संज्वलन चतुष्क में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा से मतिज्ञान की नियमा
और प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से मतिज्ञान की भजना है। अकषायी में पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा से मतिज्ञान की भजना है, क्योंकि जो छद्मस्थ होता है, उसमें मतिज्ञान तथा जो केवली होता है,
पाहा