Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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________________ [130] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन अर्थ और उसके वाचक शब्द में जो परस्पर वाच्य-वाचक संबंध रहा हुआ है, उसकी पर्यालोचना पूर्वक शब्द उल्लेख सहित जानना श्रुतज्ञान है। गोम्मटसार के अनुसार - 'जीव:अस्ति' ऐसा कहने पर जो शब्द का ज्ञान होता है कि 'जीव है' यह श्रोत्रेन्द्रिय से उत्पन्न हुआ मतिज्ञान है और ज्ञान के द्वारा 'जीव है' इस शब्द के वाच्यरूप आत्मा के अस्तित्व में वाच्य-वाचक सम्बन्ध के संकेत ग्रहण पूर्वक जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह श्रुतज्ञान है। जैसेकि 'जीवः अस्ति' ऐसे शब्द को जानना मतिज्ञान और उसके निमित्त से जीव नामक पदार्थ को जानना श्रुतज्ञान है। इस प्रकार अक्षरात्मक श्रुतज्ञान का स्वरूप जानना चाहिए। शीतल पवन का स्पर्श होने पर 'यहाँ शीतल पवन है' यह जानना मतिज्ञान है और उस ज्ञान से 'वायु की प्रकृतिवाले के लिए यह पवन अनिष्ट है।' ऐसा जानना अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान है, क्योकि यह अक्षर के निमित्त से उत्पन्न नहीं हुआ है। उपर्युक्त वर्णन में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान को लक्षण की भिन्नता के कारण भिन्न-भिन्न सिद्ध किया गया है। 2. हेतु एवं फल से मति-श्रुत में अन्तर श्रुत मतिपूर्वक होता है, मति श्रुतपूर्वक नहीं होती, यह दोनों में भेद है। श्रुत की प्राप्ति तथा वैशिष्ट्य सम्पादन के कारण मतिपूर्वक श्रुत कहा गया है।00 'मइपुव्वं सुत्तं' अर्थात् 'मतिपूर्वक श्रुतज्ञान' इस आगमिक कथन में श्रुतज्ञान के पूर्व मतिज्ञान का सद्भाव माना है, किन्तु मतिज्ञान के पूर्व श्रुतज्ञान का सद्भाव स्वीकार नहीं किया गया है। यही दोनों में अन्तर है और इसी अपेक्षा से मतिज्ञान हेतु एवं श्रुतज्ञान फल रूप है। प्रश्न - यदि श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है तो वह श्रुतज्ञान भी मति रूप ही है, क्योंकि कारण के समान ही कार्य होता है? उत्तर - यह कोई एकान्त नियम नहीं है कि कारण के समान कार्य होता है। यद्यपि घट की उत्पत्ति दण्डादिक से होती है तो भी वह घट दण्डादि रूप नहीं होता है। दूसरा, मतिज्ञान के रहते हुए भी जिसके श्रुतज्ञानावरण का प्रबल उदय है, उसको श्रुतज्ञान नहीं होता है। लेकिन श्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर ही श्रुतज्ञान होता है। इसलिए मतिज्ञान श्रुतज्ञान की उत्पत्ति में निमित्त मात्र जानना चाहिए।101 अकलंक ने भी ऐसा ही उल्लेख किया है।102 विशेषावश्यकभाष्य में शंका उपस्थित करते हुए कहा है कि श्रुत को मतिपूर्वक क्यों कहा है? समाधान - पूर्व शब्द 'पृ' (पालन व पूरण) धातु से निपातन से बना है। अतः मतिज्ञान श्रुतज्ञान का पूरण (पोषण) या पूर्ति करता है और वह उसका पालन (स्थिरीकरण) भी करता है, इसलिए मतिज्ञान का श्रुतज्ञान के पहले (पूर्व) ही होना उचित है, अतः 'मतिपूर्वक श्रुत' होता है, यह कथन सही है। अनुप्रेक्षादि के समय, विचारणा के द्वारा श्रुतपर्याय की वृद्धि होने से मति द्वारा ही श्रुतज्ञान का पूरण, पोषण होता है, मति से ही श्रुत पुष्ट होता है, मति द्वारा ही प्राप्त होता है, मति से ही वह दूसरों को दिया जाता है, ग्राह्यमाण श्रुतज्ञान परावर्तन व चिन्तन के माध्यम से मतिज्ञान द्वारा ही पालित होता है, अर्थात् श्रुतज्ञान का स्थिरीकरण होता है। इसलिए मतिज्ञान ही सर्वतोभावेन रूप से श्रुतज्ञान का कारण है और श्रुतज्ञान मति का फल है। दोनों को अभेद रूप से स्वीकार करने पर हेतु 98. मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 140 100. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 105 102. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.20.3-5 पृ. 49-50 99. गोम्मटसार जीवकांड, गाथा 315 पृ. 524 101. सर्वार्थसिद्धि 1.20 पृ. 85