Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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तृतीय अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान
[145] 2. अश्रुतनिश्रित - श्रुत से परिकर्मित (संस्कारित) मति जिसकी पहले नहीं हुई है, ऐसे व्यक्ति को सहज ही जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह अश्रुतनिश्रित है अर्थात् श्रुत संस्कार से निरपेक्ष सहज मति अश्रुतनिश्रित मति है।74
नंदीचूर्णि में जिनदासगणि कहते हैं कि द्रव्य श्रुत (द्वादशांग) के आधार पर होने वाला आभिनिबोधिक ज्ञान श्रुतनिश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान कहलाता है। जिस आभिनिबोधिक ज्ञान की उत्पत्ति में द्रव्यश्रुत और भावश्रुत की आवश्यकता नहीं होती है, वह अश्रुतनिश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान है।75
हरिभद्रसूरि के अनुसार - द्रव्य श्रुत (द्वादशांग) को ग्रहण करके, उसके अनुसार श्रुतपरिकर्मित मति वाले के श्रुत की अपेक्षा से जो आभिनिबोधिक ज्ञान उत्पन्न होता है, वह श्रुतनिश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान कहलाता है। श्रुत सहायता के बिना तथाविध क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाला आभिनिबोधिकज्ञान अश्रुतनिश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान कहलाता है।76
जिनभद्रगणि और हरिभद्रसूरि दोनों के अनुसार श्रुतपरिकर्मित मति वाले के श्रुतनिश्रित मतिज्ञान होता है, लेकिन भाष्यकार मति को वर्तमान में श्रुतातीत मानते हैं, जबकि हरिभद्रसूरि मति को वर्तमान में श्रुत सापेक्ष मानते हैं।
मलयगिरि की नंदीवृत्ति के कथनानुसार - जिसकी मति शास्त्र के अध्ययन से परिष्कृत हो गई है, उस व्यक्ति को ज्ञान की उत्पत्ति के समय शास्त्र की पर्यालोचना के बिना जो मतिज्ञान उत्पन्न होता है, वह श्रुतनिश्रित है। शास्त्र-संस्पर्श से सर्वथा रहित, तथाविध क्षयोपशम से जो यथार्थ वस्तुसंस्पर्शी मतिज्ञान होता है, वह अश्रुतनिश्रित मति है।
जिस मतिज्ञान का श्रुतज्ञान से सम्बन्ध हो, जिस मतिज्ञान सीखा हुआ श्रुतज्ञान काम आता हो, जिस मतिज्ञान पर पहले सीखे हुए श्रुतज्ञान का प्रभाव हो, उस मतिज्ञान को - 'श्रुतनिश्रित मतिज्ञान' कहते हैं। इसका दूसरा नाम 'मति' है।
जिस मतिज्ञान का श्रुतज्ञान से सम्बन्ध नहीं हो, जिस मतिज्ञान में सीखा हुआ श्रुतज्ञान काम नहीं आता हो, जिस मतिज्ञान पर पहले सीखे हुए श्रुत ज्ञान का प्रभाव नहीं हो, उस मतिज्ञान को 'अश्रुतनिश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान' कहते हैं। इसका दूसरा नाम 'बुद्धि' है।78
अश्रुतनिश्रित वैनयिकी में श्रुत का स्पर्श होता है, इससे श्रुत स्पर्श-अस्पर्श श्रुतनिश्रित-अश्रुतनिश्रित के भेद का व्यावर्तक लक्षण कैसे बन सकता है? जिनभद्रगणि इसका समाधान करते हुए कहते हैं कि श्रुतनिश्रित में श्रुतस्पर्श की बहुलता होती है जबकि अश्रुतनिश्रित में श्रुत का स्पर्श अल्प होता है। श्रुत का अल्प और बहुत्व स्पर्श ही दोनों के भेद का व्यावर्तक लक्षण है।79
प्रश्न - 'इंदिय-मणोनिमित्तं, तं सुयनिस्सियमहेयरं च पुणो। तत्थेक्केक्कं चउभेयमुग्गहोप्पत्तियाइयं10 श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-ये चार भेद तथा अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान के औत्पातिकी, वैनेयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी-ये चार भेद बतलाये हैं तो इस प्रकार कुल आठ भेद मतिज्ञान के प्राप्त होते हैं।
उत्तर - नहीं, वे भेद वास्तव में अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-इन चार भेदों से पृथक् नहीं 174. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 177 बृहवृत्ति, पृ. 90
175. नंदीचूर्णि पृ. 57 176. हारिभद्रीय वृत्ति, पृ. 57
177. मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 144 178. पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 102 179. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 168, हारिभद्रीय पृ. 54 मलधारी हेमचन्द्र गाथा 169, मलयगिरि पृ. 159 180. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 177