Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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________________ [136] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन श्रुतज्ञान शब्द रूप तथा मतिज्ञान उभय रूप जिसका कथन किया जाता है तथा जो कथन करता है उनके ही श्रुत होता है, ऐसा मानना भी उचित नहीं है, क्योंकि कुछ ऐसे भी अभिलाप्य पदार्थ होते हैं जिनका ज्ञान (निश्चय) मतिज्ञान के द्वारा ही होता है और शब्द रूप द्रव्यश्रुत द्वारा कहा जाता है। यदि बोलने वाले के श्रुत ही माना जायेगा तो श्रुतज्ञान का प्रसंग प्राप्त होगा जो कि अभीष्ट (श्रुतानुसारी नहीं होने से श्रुतोपयोग से रहित है) नहीं है। अतः जो अर्थ भाषण (बोलने) के योग्य नहीं (अनभिलाप्य) वह सम्पूर्ण अर्थ मति रूप है। जो अर्थ बोलने योग्य (अभिलाप्य) है और उस अर्थ की आलोचना श्रुतबुद्धि से होती है, तो वह अर्थ श्रुत है तथा जिस अर्थ की आलोचना मति से होती है तो वह अर्थ मति है। इस प्रकार श्रुतज्ञान शब्द में परिणत होता है और मति उभयस्वभाव रूप है। 32 क्या मतिज्ञान श्रुत परिणत होता है? पूर्वपक्ष - विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 128 की 'इतरत्थ वि होज सुयं, उवलद्धिसमं जइ भणेज्जा।' इस द्वितीय पंक्ति का अर्थ निम्न प्रकार से करते हुए कहता है कि मतिज्ञान से जितना जाना उतना (उपलब्धि समान) कहते हैं तो वह श्रुत है। अतः मतिज्ञान श्रुतज्ञान में परिणत होता है, ऐसा माना गया है। उत्तपक्ष - जिनभद्रगणि इसको स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ऐसा मानना उचित नहीं है क्योंकि जो मति है वह श्रुत नहीं हो सकता है और जो श्रुत है वह मति नहीं हो सकता है। अत: मतिज्ञान और श्रुतज्ञान भिन्न होने से मतिज्ञान श्रुतज्ञान में परिणत नहीं हो सकता है। क्योंकि दोनों का अपना-अपना अस्तित्व है। आगमानुसार दोनों का लक्षण अलग-अलग है और दोनों के आवरक कर्म भी भिन्न-भिन्न हैं। अत: दोनों एक हो ही नहीं सकते हैं। यदि अभिलाप्य व अनभिलाप्य पदार्थ को मतिज्ञानी मतिज्ञान द्वारा जानता है, फिर भी वह उपलब्धि (ज्ञान) के समान भाषण नहीं कर पाता है। क्योंकि उसमें अनभिलाप्य पदार्थ अवाच्य रूप होते हैं। अतः मति को उभयरूप मानले अर्थात् अभिलाप्य पदार्थ जिन्हें जानकर बोलता है, वे श्रुतज्ञान रूप है और अनभिलाप्य पदार्थों के ज्ञान को मतिरूप मान लिया जाय तो क्या बाधा है? जिनभद्रगणि कहते हैं कि मानना उचित नहीं है क्योंकि मतिज्ञानी जो कुछ भी बोलता है, वह श्रुतानुसरण नहीं करते हुए स्वमति से ही बोलता है अत: मतिज्ञान में श्रुतरूपता संभव नहीं है।133 5. कारण-कार्य से मति-श्रुत में अन्तर मतिज्ञान कारण है, श्रुतज्ञान कार्य है इस अपेक्षा से दोनों भिन्न हैं। कुछेक आचार्यों के मतानुसार श्रुतज्ञान का कारण मतिज्ञान वल्कल (छाल) के समान है और श्रुतज्ञान कार्य होने से अवल्क रूप शुम्ब है। यहाँ वल्क का अर्थ पलाश आदि की छाल और अवल्क रूप शुम्ब का अर्थ उस छाल से बनी दवरिका (छाल को गूंथकर बनाई हुई दरी, चटाई या लड़ी) है। इस प्रसंग में मति वल्क जैसा और भावश्रुत शुम्ब जैसा है, ऐसा कहना चाहिए (वल्क कारण है, रज्जु कार्य है।) अर्थात् अर्हत् वचनादि रूप परोपदेश से सुसंस्कृत होकर मतिज्ञान ही विशिष्ट स्थिति को प्राप्त होता हुआ श्रुतज्ञान के रूप में जाना जाता है, इस प्रकार वल्क-अवल्क के रूप में इनकी भिन्नता होने से मति-श्रुत में भिन्नता है।34 जिनभद्रगणि इसका खण्डन करते हैं, क्योंकि इससे भावश्रुत का अभाव, सांकर्य दोष, अभेद, स्व-आवरण सम्बन्धी भेद आदि समस्याएं उत्पन्न होती हैं। जैसेकि मति के बाद शब्द मात्र के 132. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 146-150 बृहद्वृत्ति सहित 133. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 135, 151-153 134. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 154 एवं बृहवृत्ति