Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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________________ [64] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन केवलज्ञान। भगवतीसूत्र, स्थानांगसूत्र, राजप्रश्नीय सूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र तथा कर्मविषयक ग्रन्थों में ज्ञान की यह चर्चा प्राप्त होती है। 2. तर्कशैली - प्रमाण के आधार पर ज्ञान का वर्णन करना तर्कशैली है। यह शैली अनुयोगद्वार में प्राप्त होती है। अनुयोगद्वार में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम इन चार प्रमाणों में पांच ज्ञानों का समावेश किया है। उपाध्याय यशोविजयजी ने ज्ञानबिन्दुप्रकरण और जैनतर्कभाषा में नव्यन्याय को आधार बनाकर तर्कशैली में पांच ज्ञानों का वर्णन किया है। 3. दर्शनशैली - नंदीसूत्र में इन्द्रिय से होने वाला ज्ञान का प्रत्यक्ष ज्ञान और परोक्ष ज्ञान दोनों में समावेश करके अन्य दर्शनों में मान्य इन्द्रिय-जन्य प्रत्यक्ष ज्ञान का जैन दर्शनानुसार समन्वय किया गया है। इस प्रकार नंदीसूत्र में पांच ज्ञान का वर्णन दर्शनशैली में किया गया है। विशेषावश्यकभाष्य में भी जिनभद्रगणी ने दार्शनिक शैली में ज्ञान का वर्णन किया है। इसी प्रकार कुन्दकुन्दाचार्य ने प्रवचनसार और निमयसार में भी पांच ज्ञान का वर्णन दार्शनिक शैली के आधार पर किया है, लेकिन वह क्रमबद्ध रूप से नहीं है। 4. ज्ञान को प्रत्यक्ष और परोक्ष के रूप में विभाजित करके इन दो भेदों में मत्यादि पांच ज्ञानों का समावेश किया गया है। स्थानांगसूत्र, आवश्यकनियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र में यह चर्चा प्राप्त होती है। इन चार भूमिकाओं में से प्रथम, तृतीय और चतुर्थ इन तीन भूमिकाओं (शैलियों) का पं. दलसुखभाई मालवइणिया ने 'आगम युग का जैनदर्शन' में प्रमाण खण्ड (पृ. 129-145), आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा सम्पादित नंदी (पृ. 245-250) और डॉ. मोहनलाल मेहता ने 'जैन धर्म-दर्शन एक समीक्षात्मक परिचय' (पृ. 248-252) में चार्ट आदि के माध्यम से विस्तार से उल्लेख किया है। उपर्युक्त चारों भूमिकाओं का वर्णन जितेन्द्र बी. शाह ने 'जैन आगम-साहित्य' में प्रकाशित शोधपत्र 'स्थानांग में ज्ञान चर्चा'31 में किया है। सात भूमिका - पं. सुखलालजी ने ज्ञानबिन्दुप्रकरण परिचय के पृ. 5 पर ज्ञानविकास की सात भूमिकाओं का विस्तार से वर्णन किया है,32 यथा 1. कर्मशास्त्रीय तथा आगमिक, 2. नियुक्तिगत 3. अनुयोगगत 4. तत्त्वार्थगत, 5. सिद्धसेनीय 6. जिनभद्रीय और 7. अकलंकीय। इस प्रकार ज्ञान के विकास के विभिन्न प्रकार के क्रम या मत रहे हैं, लेकिन सभी मत और क्रम मुख्यतः ज्ञान के मति आदि पांच भेदों पर ही आधारित हैं। मति आदि ज्ञानों के क्रम का हेतु पांच ज्ञानों में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान और केवलज्ञान का क्रम है। यहाँ शंका होती है कि ज्ञान का यही क्रम क्यों है? प्रस्तुत क्रम तो अल्प से सर्वश्रेष्ठ का है, इससे भिन्न या विपरीत क्रम अर्थात् सर्वश्रेष्ठ से अल्प का भी हो सकता है, क्योंकि केवलज्ञान शेष ज्ञानों से सर्वश्रेष्ठ ज्ञान है। उसको सर्वप्रथम रखना चाहिए था। फिर मनःपर्यवज्ञान, अवधिज्ञान, श्रुतज्ञान और मतिज्ञान इस प्रकार विपरीत क्रम होना चाहिए था। जिनभद्रगणि इस शंका का समाधान देते हुए कहते हैं कि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान स्वामी, काल कारण, विषय और परोक्षपने की अपेक्षा से समान हैं, अत: सर्वप्रथम इन दोनों का कथन किया गया है। 28. भगवतीसूत्र श. 8 उ. 2. पृ. 251, स्थानांगसूत्र स्थान 2, उद्देशक 1, उत्तराध्यन सूत्र अ. 28 गा. 4, आगमयुग का जैन दर्शन, पृ. 128-129 29. अनुयोगद्वारसूत्र, पृ. 360-361, 376 30. स्थानांगसूत्र स्था. 2, उ. 1, आवश्यकनियुक्ति गाथा 1 से 79 31. जैन आगम साहित्य, पृ. 18-27 32. ज्ञानबिन्दुप्रकरण, परिचय पृ. 5 33. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 85