Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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________________ द्वितीय अध्याय - ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय [75] है। 'चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति' जो रूप को ग्रहण करे, वह चक्षुरिन्द्रिय है। 'गंधस्स घाणं गहणं वयंति' जो गंध को ग्रहण करे, वह घ्राणेन्द्रिय है। 'जीहाए रसं गहणं वयंति' जो रस को ग्रहण करे, वह रसनेन्द्रिय है। कायस्स फासं गहणं वयंति' जो स्पर्श का ग्रहण करती है, वह स्पर्शनेन्द्रिय पूज्यपाद के अनुसार वीर्यान्तराय और मतिज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग नामकर्म के आलम्बन से आत्मा जिसके द्वारा स्पर्श करता है, वह स्पर्शन इन्द्रिय है, जिसके द्वारा स्वाद लेता है, वह रसनाइन्द्रिय है, जिसके द्वारा सूंघता है वह घ्राण इन्द्रिय है, जिसके द्वारा पदार्थों को देखता है, वह चक्षु इन्द्रिय है तथा जिसके द्वारा सुनता है, वह श्रोत्र इन्द्रिय है। पांच इन्द्रियों के भेद जिनभद्रगणि ने पांचों इन्द्रियों को दो विभागों में विभक्त किया है - 'दव्विंदियभाविंदियसामण्णाओ कओ भिण्णो। अर्थात् द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय। इसी प्रकार अन्य आचार्य जैसेकि पूज्यपाद, अकलंक, वीरसेचनाचार्य आदि ने भी इन्द्रिय के दो भेद किये हैं। इन्द्रिय की पौद्गलिक आकार (संस्थान) रचना को द्रव्य-इन्द्रिय कहते हैं तथा इन्द्रिय आवारक कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त शक्ति और उसके उपयोग को भावेन्द्रिय कहते हैं। अकलंक के अनुसार इन्द्रिय भाव से परिणत जीव को ही भावेन्द्रिय शब्द से कहना चाहिए। द्रव्य और भाव-इन्द्रिय के प्रभेद / जिनभद्रगणि ने द्रव्येन्द्रिय तथा भावेन्द्रिय के दो-दो प्रभेदों का उल्लेख किया है। '.दव्वं निव्वित्ति उवगरणं च..' अर्थात् निर्वृत्ति और उपकरण द्रव्येन्द्रिय 'लद्धवओगा भाविंदियं....' अर्थात् लब्धि और उपयोग भावेन्द्रिय / यही बात उमास्वाति कृत तत्त्वार्थ सूत्र में भी कही गयी है यथा - 'निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्। लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम्।97 ऐसा ही उल्लेख पूज्यपाद, अकलंक आदि आचार्यों ने भी किया है। निर्वृत्ति द्रव्येन्द्रिय का स्वरूप और भेद इन्द्रिय के विशिष्ट और विभिन्न संस्थान विशेष (रचना विशेष) को निर्वृत्ति कहते हैं। इन्द्रियों की यह रचना कर्म के कारण होती है। निर्वृत्ति के भी दो प्रकार होते हैं - बाह्य निर्वृत्ति और आभ्यन्तर निर्वृत्ति। पूज्यपाद ने इन्द्रिय नामवाले प्रतिनियत चक्षु आदि आत्मप्रदेशों में प्रतिनियत आकार रूप और नामकर्म के उदय से विशेष अवस्था को प्राप्त जो पुद्गल प्रचय होता है, उसे बाह्य निर्वृत्ति तथा उत्सेधांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण और प्रतिनियत चक्षु आदि इन्द्रियों के आकार रूप से अवस्थित शुद्ध आत्म-प्रदेशों की रचना को आभ्यन्तर निर्वृत्ति कहा है।100 90. सर्वार्थसिद्धि 2.19, पृ. 129 91. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 3003 92. सर्वार्थसिद्धि 2.16, राजवार्तिक 2.16, षट्खण्डागम पु. 1, सू. 1.1.33 पृ. 232, गोम्मटसार जीवकांड, गाथा 165 93. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 3003 94. इंद्रियभावपरिणतो हि जीवो भावेन्द्रियमिष्यते। - राजवार्तिक 1.15.14 95. विशेषावश्यक भाष्य गाथा 2994 96. विशेषावश्यक भाष्य गाथा 2997 97. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय 2 सूत्र 17-18 98. सर्वार्थसिद्धि 2.17-18, राजवार्तिक 2.17-18, षट्खण्डागम पु. 1, सू. 1.1.33, पृ. 236 99. सर्वार्थसिद्धि 2.17 100. सर्वार्थसिद्धि 2.17 पृ. 127