Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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________________ द्वितीय अध्याय - ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय [95] उक्त व्याख्याओं से संज्ञी जीव तीन प्रकार के हो गए हैं, किन्तु यहां पर मन का जो अधिकारी है, वह दीर्घकालिकी संज्ञा की अपेक्षा से बताया गया है। यह बात विशेषावश्यकभाष्य से भी सिद्ध होती है। जिसके द्वारा अतीत की स्मृति और भविष्य की चिन्ता (कल्पना) की जाती है, वह कालिकी अथवा दीर्घकालिकी संज्ञा है। यही मन है। मनोलब्धि सम्पन्न जीव मनोवर्गणा के अनन्त स्कंन्धों को ग्रहण कर मनन करता है, वह दीर्घकालिकी संज्ञा है। यह संज्ञा मनोज्ञानावरण कर्म के क्षयोपश से निष्पन्न होती है।184 अतः उपर्युक्त वर्णन के आधार पर कह सकते हैं कि जिस जीव में दीर्घकालिकी संज्ञा का विकास होता है, वह संज्ञी (समनस्क) और जिसमें इसका विकास नहीं होता, वह असंज्ञी (अमनस्क) है। एकेन्द्रियादि में मन आगम में एकेन्द्रियादि असंज्ञी प्राणियों में मन नहीं मानकर आहारादि संज्ञा मानी है। द्रव्य लोक प्रकाश में इसके लिए प्रश्न किया गया कि आहारादि संज्ञा होने से एकेन्द्रियादि जीवों को संज्ञी क्यों नहीं कहा? उत्तर - जिस प्रकार पैसा रुपया धन होते हुए भी पैसे वाले को धनवान् एवं साधारण रूप वाले को रूपवान् नहीं कहा जाता है। किन्तु बहुत पैसों वाले को धनवान् एवं सुन्दर रूप वाले को रूपवान् कहा जाता है। उसी प्रकार एकेन्द्रियादि प्राणियों में स्पर्श आदि इन्द्रियों के क्षयोपशम रूप मति अज्ञान के क्षयोपशम रूप आहारादि संज्ञाओं के होते हुए भी मनःपर्याप्ति से परिणामतः मनोयोग से व्याप्त मनन योग्य द्रव्यों के सहयोग से उत्पन्न विशेष क्षयोपशम रूप संज्ञा के अभाव में एकेन्द्रियादि को संज्ञी नहीं कहा जाता है। नन्दीचूर्णि में निक्षेप पद्धति से मन के द्रव्य और भाव भेद किये हैं। वहाँ पर भी एकेन्द्रियों में भाव मन स्वीकार नहीं किया है।186 तत्त्वार्थसूत्र अध्ययन 2 सू. 25 के भाष्य में एकेन्द्रियादि में सूक्ष्म मन माना है, वास्तव में वे आहारादि संज्ञाएं ही हैं, जिन्हें ग्रंथकारों ने सूक्ष्म मन कह दिया है। तत्वार्थसूत्र के दूसरे अध्ययन के 11वें सूत्र के अर्थ में एकेन्द्रिय आदि असंज्ञी प्राणियों के भाव मन होना स्वीकार किया है, तथा वहाँ पर बताया गया है कि जिस प्रकार बूढ़ा व्यक्ति पांव एवं चलने की शक्ति से युक्त होते हुए भी बिना लकड़ी से चल नहीं सकता है, इसी तरह एकेन्द्रियों के भाव मन होते हुए भी द्रव्य मन के बिना स्पष्ट विचार नहीं किया जा सकता। इस प्रकार तत्त्वार्थ विवेचन में एकेन्द्रियों में भावमन स्वीकार करके भी द्रव्य मन के बिना उसकी प्रवृत्ति नहीं मानी है। वास्तव में यह कथन भी दिगम्बर साहित्य की अपेक्षा से ही होना चाहिए। क्योंकि श्वेताम्बर साहित्य में द्रव्य मन के अभाव में भाव मन को स्वीकार नहीं किया गया। नन्दीचूर्णि में "मणदव्वालंबणो जीवस्स मणणवावारो भावमणो भण्णइ" के द्वारा द्रव्यमन के आलम्बन के बिना भाव मन स्वीकार नहीं किया है। द्रव्य लोक प्रकाश में नंदीचूर्णि एवं प्रज्ञापनावृत्ति के उद्धरण देकर यह स्पष्ट किया है कि - बिना द्रव्य मन के भाव मन होता ही नहीं है। वैसे ही नंदीचूर्णि के कथनानुसार द्रव्य मन के बिना भाव मन असंज्ञी के समान नहीं होता है। जिनेश्वर भगवान् की तरह भाव मन के बिना द्रव्य मन 184. इह दीहकालिगी कालिगित्ति सण्णा जया सुदीहंपि। संभरइ भूयमिस्सं चिंतेइ य किह णु कायव्वं / / कालियसण्णित्ति तओ जस्स तई सो य जो मणोजोग्गे। खंधेऽणते घेत्तं मन्नइ तल्लद्धिसंपण्णो।। -विशेषावश्यकभाष्य गाथा 508-509 185. श्री भिक्षु आगम शब्द कोश, भाग 1, पृ. 509 186. द्रव्य लोक प्रकाश, सर्ग 3, पृ. 163