Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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________________ द्वितीय अध्याय - ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय [97] करता है। मस्तिष्क मन की प्रवृत्ति का मुख्य साधन अंग है, इसीलिए उसके विकृत हो जाने से मन भी विकृत हो जाता है। फिर भी मन और मस्तिष्क स्वतंत्र हैं।97 मन इन्द्रिय या अनिन्द्रिय? जैन दर्शन में मन को अनिन्द्रिय या नोइन्द्रिय कहा है, जिसका अर्थ इन्द्रिय का अभाव न होकर ईषत् इन्द्रिय है। श्रोत्रेन्द्रियादि पांच इन्द्रियों की तरह मन भी ज्ञान का साधन है, फिर भी रूपादि विषयों में प्रवृत्त होने के लिए उसको नेत्र आदि का सहारा लेना पड़ता है। यह मन की परतंत्रता है। इन्द्रियाँ नियत देश में स्थित पदार्थ को विषय करती हैं तथा कालान्तर में स्थित रहती हैं, लेकिन मन आत्मा का लिंग होते हुए भी प्रतिनियत देश में स्थित पदार्थ को विषय नहीं करता तथा कालान्तर में स्थित नहीं रहता है, इसलिए इसे अनिन्द्रिय कहते हैं।192 मन को अनिन्द्रिय कहने का कारण यह भी है कि मन इन्द्रिय की तरह प्रतिनियत अर्थ को नहीं जानता है। धवलाटीका के अनुसार इन्द्र अर्थात् आत्मा के लिंग को इन्द्रिय कहते हैं। जिस प्रकार शेष द्रव्येन्द्रियों का बाह्य इन्द्रियों से ग्रहण होता है, वैसा मन का नहीं होता। अतः मन अनिन्द्रिय है।193 अनिन्द्रिय का अर्थ इन्द्रिय सदृश है। मन को अन्त:करण भी कहा जाता है। क्योंकि मन ज्ञान का साधन होते हुए भी श्रोत्रेन्द्रियादि की तरह बाह्य साधन नहीं है, वह आन्तरिक साधन है एवं इसका कार्य गुण-दोष विचार स्मरण आदि हैं जिन्हें वह इन्द्रियों की सहायता के बिना सम्पन्न करता है। इसलिए मन को अन्त:करण भी कहा जाता है। सर्वार्थसिद्धि के अनुसार अनिन्द्रिय, मन और अन्तःकरण ये एकार्थवाची हैं।194 मन और इन्द्रियों की सापेक्षता जैन दर्शन के अनुसार इन्द्रिय और मन परोक्ष ज्ञान के साधन हैं। मन सभी इन्द्रियों में एक साथ प्रवृत्ति नहीं कर सकता है अर्थात् उपयोगवान् नहीं हो सकता है। भावमन उपयोगममय है वह जिस समय जिस इन्द्रिय के साथ मनोयोग कर जिस वस्तु का उपयोग करता है वह तब तद् उपयोगमय हो जाता है। इन्द्रियों के व्यापार की सार्थकता इसी में है कि उसके बाद मन भी अपना कार्य करे। इन्द्रियों के अभाव में मन भी पंगु हो जाता है। वह उसी विषय पर चिन्तन कर सकता है, जो कभी न कभी इन्द्रियों से गृहीत हुआ हो। इन्द्रियाँ सिर्फ मूर्त-द्रव्य की वर्तमान पर्याय को ही जानती हैं। मन मूर्त और अमूर्त दोनों के त्रैकालिक अनेक रूपों का जानता है, इसलिए मन को सर्वार्थग्राही कहा गया है।" इन्द्रियाँ केवल मूर्त्तद्रव्य की वर्तमान पर्याय को जानती हैं, मन मूर्त और अमूर्त त्रैकालिक अनेक रूपों को जानता है, क्योंकि मन का विषय प्रतिनियत नहीं है, वह दूर-निकट सर्वत्र प्रवृत्त होता रहता है। केवल पुद्गल ही मन का विषय नहीं है। केवलज्ञान की तरह मूर्त-अमूर्त सब पदार्थ मन के विषय बनते हैं। 2I 191. सिद्धसेन दिवाकर, (पं. सुखलाल संघवी) सन्मतितर्क प्रकरण, काण्ड 2 192. इमानीन्द्रियाणि प्रतिनियतदेशविषयाणि कालान्तरावस्थायीनि च। न तथा मनः इन्द्रस्य लिंगमपिसत्प्रतिनियत -विषयं कालान्तरावस्थायि च। - सर्वार्थसिद्धि, 1.14, पृ. 78 193. मनस इन्द्रियव्यपदेशः किन्न कृत इति चेन्न, इन्द्रस्य लिङ्गमिन्द्रियम्। उपभोक्तुरात्मनोऽनिवृत्तकर्मसम्बन्धस्य परमेश्वरशक्तियोगादिन्द्रव्यपदेशमर्हतः स्वयमर्थान् गृहीतुमसमर्थस्योपयोगोपकरणं लिङ्गमिति कथ्यते। न च मनस उपयोगोकरणमस्ति। - धवलाटीका, भाग 1, सूत्र 1.1.35, पृ. 260 194. अनिन्द्रियं मनः अन्त:करणमित्यनान्तरम्। - सर्वार्थसिद्धि, 1.14, पृ. 77 195. सर्वार्थग्रहणं मनः। -आचार्य हेमचन्द्र, प्रमाण मीमांसा, अ. 1 सू. 24 पृ. 19 196. ...मणस्स न विसयपमाणं / पोग्गलमित्तिनिबंधाभावाओ केवलस्सेव।। - विशेषावश्यकभाष्य गाथा 350