Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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________________ द्वितीय अध्याय - ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय [105] इस प्रकार पूर्व और उत्तर पर्याय में रहने वाला परिणामी नित्य242 द्रव्य है। इसी आधार पर आत्मा में पर्याय परिवर्तन सम्भव है। आत्मा में तत्व-दृष्टि से ध्रौव्यता होते हुए भी पर्याय दृष्टि से उसमें परिवर्तन होते रहते हैं। द्रव्य के दूसरे लक्षण के अनुसार द्रव्य में गुण और पर्यायें होती है। आत्मतत्त्व में भी द्रव्य का लक्षण रहता है। गुण द्रव्य के आश्रित होते हैं। आत्मा में सामान्य और विशेष दोनों प्रकार के गुण रहते हैं 43 विशेष गण को असाधारण गण भी कहते हैं। जैन दार्शनिकों ने आत्मा के छ: विशेष गुण माने हैं, यथा ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, चेतनत्व और अमूर्तत्व तथा दस सामान्य गुणों को उल्लेख हुआ है. यथा अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशवत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व और अमूर्तत्व 44 जैनदर्शन के अनुसार द्रव्य में अनन्त गुण विद्यमान रहते हैं। ज्ञानी के प्रकार आचारांग श्रुतस्कंध 1, अध्ययन 2, उद्देशक 5 के अनुसार ज्ञाता के नौ भेद होते हैं - 1. कालज्ञ - कार्य करने के अवसर को जानने वाला कालज्ञ कहलाता है। 2. बलज्ञ - स्वयं के बल को जानने वाला और शक्ति के अनुसार आचरण करने वाला बलज्ञ कहलाता है। 3. मात्रज्ञ - कौनसी वस्तु कितनी चाहिए। स्वयं की जरूरत के हिसाब से वस्तु का प्रमाण जानने वाला मात्रज्ञ कहलाता है। 4. खेदज्ञ अथवा क्षेत्रज्ञ - अभ्यास द्वारा प्रत्येक कार्य के अनुभवी अथवा संसार चक्र में परिभ्रमण के कष्ट को जानने वाला क्षेत्रज्ञ कहलाता है। 5. क्षणज्ञ - क्षण अर्थात् प्रत्येक कार्य का उचित समय जानने वाला क्षणज्ञ कहलाता है। 6. विनयज्ञ - ज्ञान, दर्शनादि भक्ति रूप विनय को जानने वाला विनज्ञ कहलाता है। 7. स्व-समयज्ञ - स्वसिद्धान्त और आचार को जानने वाला स्व-समयज्ञ कहलाता है। 8. पर-समयज्ञ - अन्य के सिद्धान्तों को जानने वाला, जब समय आये तब दूसरों के सिद्धान्तों के सामने स्वयं के सिद्धांतों की विशेषता बताने वाला पर-समयज्ञ कहलाता है। 9. भावज्ञ - दाता और श्रोता के अभिप्राय को जानने वाला और समझने वाला भावज्ञ कहलाता है। ज्ञान के अष्ट आचार है ज्ञान की प्राप्ति एवं अभिवृद्धि हेतु भगवती सूत्र (शतक 12, उद्देशक 1), धर्म-संग्रह (देशना अधिकार 3 श्लोक 54) आदि स्थलों पर ज्ञानाचार के आठ प्रकार कहे गये हैं, यथा - 1. कालाचार - दिन और रात्रि के प्रथम और चौथे प्रहर में कालिक सूत्र और अन्य काल में उत्कालिक सूत्र को 32 प्रकार के अस्वाध्याय को टाल कर पढ़ना और पढ़ाना चाहिए। शास्त्र में जिस काल में जिन सूत्र को पढ़ने की आज्ञा है, उस समय वही सूत्र पढ़ने चाहिए। 2. विनयाचार - ज्ञानदाता गुरु का विनय करना यह विनयाचार है। 3. बहुमानाचार - ज्ञानी और गुरु प्रति हृदय में भक्ति भाव और श्रद्धा रखना बहुमानाचार है। 4. उपधानाचार - शास्त्रों में जिन सूत्रों का अभ्यास करने के लिए जो तप बताया है, वह तप अभ्यास करते हुए करना। 242. तद्भावाव्ययं नित्यम्। - तत्त्वार्थसूत्र, अ. 5, सू. 30 243. आलाप पद्धति, गाथा 11-12 244. आलाप पद्धति, गुणाधिकार, सू. 12, 9