Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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________________ द्वितीय अध्याय - ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय [93] वैशेषिक दर्शन ने जो मन को अणु रूप माना है उसका खण्डन करते हुए अकलंक कहते हैं कि मन को अणु रूप मानने पर चक्षु के जिस अंश से मन का संयोग हो उसी से रूप ज्ञान दृष्टिगोचर होना चाहिए, लेकिन सम्पूर्ण चक्षु से रूप का ज्ञान होता है। इसलिए मन अणु रूप नहीं हो सकता है। 72 बौद्ध मन को हृदयप्रदेशवर्ती मानते हैं। यह दिगम्बर परम्परा के निकट है। सांख्य परम्परा श्वेताम्बर परम्परा के निकट है, क्योंकि सांख्य परम्परा के अनुसार मन का स्थान केवल हृदय नहीं है, क्योंकि मन सूक्ष्म-लिंग शरीर में जो अष्टादश तत्त्वों का विशिष्ट निकायरूप है, प्रविष्ट है और सूक्ष्म शरीर का स्थान सम्पूर्ण स्थूल शरीर है, इसलिए मन सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है।13। जैनदर्शन के अनुसार भाव मन का स्थान आत्मा है, किन्तु द्रव्य मन के सम्बन्ध में एक ही मत नहीं है। दिगम्बर परम्परा द्रव्य मन को हृदय में मानती है,174 किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में ऐसा कोई वर्णन नहीं मिलता है। श्वेताम्बर परम्परा के पक्ष में पं. सुखलालजी का मत है कि द्रव्य मन का स्थान सम्पूर्ण शरीर है।175 तत्त्वार्थसूत्र के हिन्दी विवेचन में उन्होंने ऐसा ही उल्लेख किया है, यथा - "प्रश्न - क्या मन भी नेत्र आदि की तरह शरीर के किसी विशिष्ट स्थान में रहता है या सर्वत्र रहता है? उत्तर - वह शरीर के भीतर सर्वत्र रहता है, किसी विशिष्ट स्थान में नहीं, क्योंकि शरीर के भिन्न-भिन्न स्थानों में स्थित इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये गये सभी विषयों में मन की गति है, जो उसे देहव्यापी माने बिना सम्भव नहीं। इसीलिए कहा जाता है कि यत्र पवनस्तत्र मनः"176 योगशास्त्र में आचार्य हेमचन्द्र भी मन का स्थान सम्पूर्ण शरीर मानते हैं, उनके अनुसार जहाँ जहाँ प्राणवायु (मरुत्) है वहाँ-वहाँ मन है। दोनों परस्पर कारण-कार्य हैं।7 भाव मन का स्थान आत्मा ही है, क्योंकि आत्मप्रदेश सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त हैं। अतः भाव मन सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है।78 दिगम्बर आचार्य पूज्यपाद ने मन को अनवस्थित कहा है क्योंकि मन आत्मा का लिंग होते हुए भी प्रतिनियत देश में स्थित पदार्थ को विषय नहीं करता और कालान्तर में भी स्थित नहीं रहता है।79 इस मत का समर्थन अकलंक ने भी किया है। अकलंक के अनुसार जहाँ-जहाँ उपयोग होता है वहाँ वहाँ अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण आत्म प्रदेश मन रूप से परिणत हो जाते हैं। भाव मन रूप में परिणत आत्मा जब गुण-दोष विचार, चिन्तन, स्मरणादि कार्यों को करने के लिए प्रवृत्त होता है तो वह इन कार्यों को द्रव्य मन के सहयोग से पूर्ण करता है। इन कार्यों के उपस्थित होने पर ही द्रव्य मन का निर्माण होता है और कार्य पूर्ण होने पर द्रव्य मन नष्ट हो जाता है। चिन्तनादि कार्य करते समय पुद्गल परमाणुओं से निर्मित अनेक मनोवर्गणाएं मन रूप से परिणत होती हैं तथा उस कार्य को सम्पन्न होने पर वे वर्गणाएं मन रूप अवस्था का त्याग कर देती हैं।180 172. अकलंक, तत्त्वार्थराजवार्तिक, सनातन जैन ग्रंथमाला, 5.19.24 पृ. 219-220 173. पं. सुखलाल संघवी, दर्शन और चिन्तन, भाग 1, पृ. 140 174. गोम्मटसार, जीवकांड भाग 2 (तृतीय संस्करण), नई दिल्ली, भारतीय ज्ञानपीठ, सन् 2000, गाथा 443 175. दर्शन और चिन्तन, भाग 1, पृ. 140 176. तत्त्वार्थसूत्र (हिन्दी विवेचन), पृ. 60 177. मनो यत्र मरुत्तत्र, मरुद्यत्र मनस्ततः / अतस्तुल्यक्रियावेतौ, संवीतौ क्षीर-नीरवत् / / - योगशास्त्र, प्रकाश 5, गाथा 2 पृ. 971 178. दर्शन और चिन्तन, भाग 1, पृ.140 179. न तथा मनः इन्द्रस्य लिंगमपिसत्प्रतिनियत विषयं कालान्तरावस्थायि च। - सर्वार्थसिद्धि, अ. 1, सू. 14, पृ. 78 180. तत्त्वार्थराजवार्तिक, 5.19.6. पृ. 217