Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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________________ द्वितीय अध्याय - ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय [65] 1. स्वामी ( अधिकारी) - मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के अधिकारी समान हैं। यह चारों गति के जीवों में पाये जाते हैं। 2. काल - एक जीव और अनेक जीवों की अपेक्षा से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की स्थिति समान है। 3. कारण - दोनों ज्ञान अपने-अपने आवरण के क्षयोपशम और इन्द्रिय और मन की सहायता से होते हैं। 4. विषय - दोनों का विषय सर्वद्रव्य है। 5. परोक्षत्व - इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने के कारण दोनों परोक्ष हैं। 6. मति और श्रुत होने पर ही अवधि आदि शेष ज्ञान होते हैं। इसलिए इन दोनों को सर्वप्रथम रखा गया है। जिनदासगणि के मत से - मति और श्रुत को सर्वप्रथम रखने का यह कारण है कि इन दोनों ज्ञानों के होने पर ही शेष ज्ञान संभव है। दोनों के अधिकारी तुल्य/समान हैं, दोनों की स्थिति समान है, दोनों परोक्ष ज्ञान हैं। मति-श्रुत में भी मति पहले क्यों? मति और श्रुतज्ञान को सर्वप्रथम रखा, लेकिन उसमें भी मति को ही पहले क्यों रखा गया? उत्तर - इसके दो कारण हैं - 1. श्रुत ज्ञान मतिपूर्वक होता है अर्थात् जीव को पहले मतिज्ञान होगा उसके बाद श्रुतज्ञान होगा। इसलिए मतिज्ञान को पहले रखा गया है। 2. इन्द्रिय और मन से होने वाला श्रुतज्ञान परोपदेश व आगम वचन के कारण विशिष्टता को प्राप्त होता हुआ मतिज्ञान का ही एक विशिष्ट भेद है। इसलिए मतिज्ञान को सर्वप्रथम कहा गया है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में अन्तर ___ जो मन और इन्द्रियों से अनुभव करके जाना जाता है, उस देखे हुए और जाने हुए ज्ञान को मतिज्ञान कहा गया है। देखे हुए, जाने हुए मतिज्ञान से अपने इष्ट और अनिष्ट का, हित-अहित का, हेय-उपादेय का ज्ञान करना श्रुतज्ञान है। अतः श्रुतज्ञान सभी प्राणियों को स्वतः प्राप्त है, यह स्वयंसिद्ध ज्ञान है, इसकी सिद्धि के लिए अन्य प्रमाण की अपेक्षा नहीं होती है।" मति और श्रुतज्ञान के बाद चार बातों में साधर्म्य होने से अवधिज्ञान को रखा गया है, यथा 1. काल - एक जीव की अपेक्षा से जितना काल मति और श्रुत का है, उतना ही काल अवधिज्ञान का है। 2. विपर्यय - मिथ्यात्व का उदय होने पर मति और श्रुतज्ञान अज्ञान में बदल जाते हैं, वैसे ही अवधिज्ञान विभंगज्ञान में बदल जाता है। 3. स्वामित्व - मति और श्रुत ज्ञान का स्वामी ही अवधि का स्वामी होता है। 4. लाभ - किसी को कभी तीनों ज्ञान एक साथ प्राप्त हो जाते हैं जिनदासगगणि ने भी ऐसा ही उल्लेख किया है। अवधिज्ञान के बाद मनःपर्यवज्ञान रखने का कारण बताते हुए जिनभद्रगणि कहते हैं कि दोनों ज्ञान छद्मस्थ जीव को होते हैं, दोनों ज्ञानों का विषय रूपी द्रव्य है, दोनों क्षायोपशमिक ज्ञान हैं, अत: छद्मस्थता, विषय और भाव की समानता होते हुए भी अवधिज्ञान के बाद मनःपर्यवज्ञान का उल्लेख करने का कारण यह है कि अवधिज्ञान से मन:पर्यवज्ञान श्रेष्ठ है। इस श्रेष्ठता के दो कारण हैं - 1. अवधिज्ञान का विषय सर्व रूपी पदार्थ हैं। इस दृष्टि से सम्पूर्ण लोक के रूपी-द्रव्य अवधिज्ञान के विषय बनते हैं तथा शक्ति की दृष्टि से तो अलोक भी अवधिज्ञानी का विषय बन 34. मलधारी हेमचन्द्र गाथा 85 की टीका का भावार्थ 35. नंदीचूर्णि, पृ. 22 37. कन्हैयालाल लोढ़ा, बन्ध तत्त्व, पृ. 16 39. नंदीचूर्णि पृ. 22 36. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 86 38. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 87 40. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 87