Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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________________ द्वितीय अध्याय - ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय [69] श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान और केवलज्ञान ये केशीश्रमण भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के श्रमण थे। उन्होंने जिन पांच ज्ञानों का उल्लेख किया है, वैसा ही उल्लेख भगवान् महावीर स्वामी की परम्परा में भी प्राप्त होता है। उत्तराध्यनसूत्र के 23वें अध्ययन में केशी और गौतम का संवाद है। इसमें दोनों परम्परा में प्राप्त मतभेदों की चर्चा की गई है। लेकिन इस चर्चा में तत्त्वज्ञान सम्बन्धी कोई उल्लेख नहीं है। इससे स्पष्ट होता है कि दोनों परम्पराओं में पंचज्ञान की अवधारणा में कोई मतभेद नहीं था। लेकिन उत्तरकाल में पंचज्ञान प्रत्यक्ष और परोक्ष के रूप में विभक्त किये गये हैं। प्रमाण के साथ प्रत्यक्ष शब्द का प्रयोग तो प्राय: सभी दर्शनों में उपलब्ध होता है, लेकिन प्रमाण के साथ परोक्ष का प्रयोग जैन दर्शन के अलावा अन्य दर्शनों में उपलब्ध नहीं होता है। प्रायः सभी भारतीय दर्शनों ने सामान्य रूप से ज्ञान को दो विभागों में विभक्त किया है - प्रत्यक्ष और परोक्ष। इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष से होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है तथा किसी अन्य ज्ञान की सहायता से होने वाला पदार्थ का ज्ञान परोक्ष कहा जाता है। जैन दार्शनिक भी ज्ञान के उपर्युक्त भेदों को स्वीकार करते हैं। लेकिन वे इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष नहीं मानकर इन्द्रिय और मन के सहयोग के बिना आत्मा से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष की कोटि में स्वीकार करते हैं तथा इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न होने वाले समस्त ज्ञान को परोक्ष मानते हैं। ज्ञान के इन दो विभागों का उल्लेख उत्तरकाल में तत्त्वार्थसूत्र, नंदीसूत्र आदि में मिलता है। पं. सुखलालजी ने ज्ञान विकास की सात भूमिकाओं का उल्लेख करते हुए कहा है कि "दूसरी भूमिका वह है जो प्राचीन नियुक्ति भाग में, लगभग विक्रम की दूसरी शताब्दी तक में सिद्ध हुई जान पड़ती है। इसमें दर्शनान्तर के अभ्यास का थोड़ा सा असर अवश्य जान पड़ता है। क्योंकि प्राचीन नियुक्ति में मतिज्ञान के लिए मति और आभिनिबोध शब्द के अलावा संज्ञा, प्रज्ञा, स्मृति आदि अनेक पर्यायवाची शब्दों की जो वृद्धि देखी जाती है और पंचविध ज्ञान का जो प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से विभाग देखा जाता है, वह दर्शनान्तरीय अभ्यास का ही सूचक है।''55 उमास्वाति के अलावा नंदीसूत्रकार, सिद्धसेन, कुन्दकुन्दाचार्य ने ज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद किये, लेकिन उनका सम्बन्ध प्रमाण के साथ नहीं जोड़ा है। वहीं उमास्वाति ने पांच ज्ञानों को दो प्रमाणों में विभक्त करते हुए मति और श्रुतज्ञान को परोक्ष प्रमाण तथा अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान और केवलज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण बताया है। जिनभद्रगणि ने भी पांच ज्ञानों को परोक्ष और प्रत्यक्ष में विभक्त किया है।" प्रत्यक्ष-परोक्ष का लक्षण आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में कहा है कि पर की सहायता से जो पदार्थों का ज्ञान होता है, वह परोक्ष है और पर की सहायता के बिना केवल आत्मा के द्वारा जो पदार्थों का ज्ञान होता है, वह प्रत्यक्ष है। यहाँ 'पर' का अर्थ इन्द्रिय किया है। 51. राजप्रश्नीयसूत्र, सू. 241 पृ. 160 52. भगवतीसूत्र श. 8. उ. 2 53. आचार्य महाप्रज्ञ, नंदी, पृ. 51 54. आद्ये परोक्षम्। प्रत्यक्षमन्यत्। - तत्त्वार्थ सूत्र 1. 11 एवं 12, 'तं जहा-पच्चक्खं च परोक्खं च।' - नंदीसूत्र पृ. 26 55. ज्ञानबिन्दु प्रकरणम्, परिचय, पृ.5 56. न्यायावतार, कारिका 1 57. प्रवचनसार, 1.58 58. तत्त्वार्थसूत्र, अ. 1 सूत्र 9, 10, 11. 12 59. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 88 60. प्रवचनसार, अध्ययन 1, गाथा 56-58