Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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________________ [62] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन सम्यग्दृष्टि के ज्ञान और मिथ्यादृष्टि के अज्ञान कैसे होता है? मिथ्यादृष्टि का सद्-असद् समान नहीं होता है, उसका ज्ञान भव का हेतु होता है, क्योंकि ज्ञान का फल विरति है, उसका मिथ्यादृष्टि में अभाव होता है। जबकि सम्यग्दृष्टि का ज्ञान भव हेतु का नाश करने वाला होता है और वह ज्ञान के फल विरति को प्राप्त करता है, इसलिए सम्यग्दृष्टि के ज्ञान ही होता है। साथ ही आगम में स्पष्ट उल्लेख है कि जो एक को जानता है, वह सबको जानता है। जो सबको जानता है, वह एक को भी जानता है। इस प्रमाण वाक्य से सम्यग्दृष्टि सभी वस्तुओं को सर्वमय नहीं जानता है, लेकिन वह आचारांग सूत्र श्रद्धा रूप भाव से तो जानता है, उससे ही वह ज्ञानी कहलाता है। इसलिए वह परमाणु आदि सभी वस्तु को स्व-पर पर्याय से सर्वमय मानता है। उसकी प्रत्येक परिस्थिति में तीर्थंकर प्रणीत यथोक्त वस्तु के स्वरूप की दृढ़ श्रद्धा होती है। इसलिए वह हमेशा ज्ञानी कहलाता है। इसी प्रकार सम्यग्यदृष्टि का ज्ञान मोक्ष का हेतु और मिथ्यादृष्टि का ज्ञान संसार का हेतु किस प्रकार है इसकी सिद्धि की गई है। अध्यात्म और दर्शन में ज्ञान का स्वरूप अध्यात्म-शास्त्र में ज्ञान की यथार्थता और अयथार्थता सम्यग्दर्शन पर आधारित है। जिस आत्मा में सम्यग्दर्शन का सद्भाव है, उस आत्मा का ज्ञान सम्यग्ज्ञान और जिस आत्मा में सम्यग्दर्शन का सद्भाव नहीं होता है, उसका ज्ञान मिथ्याज्ञान होता है। सम्यग्दर्शन ही मुक्ति का हेतु होता है, इसके बिना मिथ्यादृष्टि संसार से मुक्त नहीं हो सकता है। इस प्रकार ज्ञान आत्मा का गुण है। सम्यग्ज्ञान उसकी शुद्ध और मिथ्याज्ञान अशुद्ध पर्याय है। सम्यग्दर्शन के सद्भाव और अभाव पर ही उसकी शुद्धता और अशुद्धता आधारित है। दर्शनशास्त्र के अनुसार ज्ञान का सम्यक्त्व ज्ञेय की यथार्थता पर निर्भर है। जिस ज्ञान में ज्ञेय पदार्थ अपने सही रूप में प्रतिभासित होता है, वही सम्यक् ज्ञान है। ज्ञेय को स्वरूप से भिन्न जानने वाला ज्ञान मिथ्याज्ञान होता है। दर्शन शास्त्र में सम्यग्ज्ञान को ही प्रमाण के रूप में स्वीकार किया गया है। ज्ञान और सम्यक्त्व में भेद जिनभद्रगणि के अनुसार जैसे अवग्रह और ईहा सामान्य अवबोध के कारण दर्शन है और अपाय तथा धारणा विशेष अवबोध के कारण ज्ञान है, वैसे ही तत्त्वविषयक रूचि - श्रद्धा सम्यक्त्व है और जिससे जीव आदि तत्त्वों पर श्रद्धा होती है, वह ज्ञान है। ज्ञान में स्व-पर प्रकाशकता इस प्रकार जैनदर्शन में यथार्थबोध को सम्यग् ज्ञान कहा गया है एवं जीव का स्व-पर को जानने का गुण ही ज्ञान है। जैनदार्शनिकों के अनुसार ज्ञान स्वप्रकाशक होकर ही किसी पदार्थ को ग्रहण करता है। जैन दर्शन में ज्ञान को स्वपरप्रकाशक कहा है, दीपक घटादि पदार्थों को प्रकाशित करने के साथ ही अपने को भी प्रकाशित करता है। उसे अपने को प्रकाशित करने के लिए दूसरे दीपक की आवश्यकता नहीं होती। वह स्वयं प्रकाश रूप होता है। इसी तरह ज्ञान भी प्रकाशरूप है, जो स्व को प्रकाशित करने के साथ ही अर्थ को भी प्रकाशित करता है। स्व का और अर्थ (पदार्थ) का निश्चयात्मक ज्ञान ही जैनदर्शन में प्रमाण माना गया है जो ज्ञान निश्चयात्मक नहीं होता उसका 21. विशेशावश्यकभाष्य, गाथा 318-321 22. विशेशावश्यकभाष्य, गाथा 322-327 23. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 536 24. पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, 1.15