Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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________________ द्वितीय अध्याय - ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय [61] (अवधिज्ञान), 4. आत्मचेतनता (मनःपर्यवज्ञान) और 5. आत्मसाक्षात्कार (केवलज्ञान)। इसी प्रकार चक्षु आदि चार दर्शन के नाम इस प्रकार हैं - 1. प्रत्यक्षीकरण (चक्षुदर्शन) 2. संवेदना (अचक्षुदर्शन) 3. अतीन्द्रिय-प्रत्यक्ष (अवधिदर्शन) और 4. आत्मानुभूति (केवलदर्शन)। दर्शन और ज्ञान में पहले कौन? छद्मस्थ के ज्ञान और दर्शन के सम्बन्ध में सभी जैन दार्शनिक एकमत हैं कि पहले दर्शन और बाद में ज्ञान होता है। लेकिन केवली के ज्ञान और दर्शन के सम्बन्ध में मुख्य रूप से तीन मतान्तर मिलते हैं - 1. दर्शन और ज्ञान क्रमशः होते हैं, 2. दर्शन और ज्ञान युगपद् होते हैं और 3. दर्शन और ज्ञान अभिन्न हैं। लेकिन अनेकान्त दृष्टि से इन तीनों मतों में भेद नहीं है। विस्तार से इन तीनों मतों की समीक्षा प्रसंगानुसार आगे केवलज्ञान के प्रकरण में की जायेगी। ज्ञानोपयोग मिथ्या क्यों? ज्ञानोपयोग के आठ भेदों में से तीन भेद (मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान एवं विभंगज्ञान) मिथ्या रूप बताये हैं, लेकिन दर्शनोपयोग के चार भेदों में से एक भी भेद मिथ्या नहीं है? इसका समाधान यह है कि दर्शन गुण के प्रकट होने में विकल्पों का अभाव होता है अर्थात् उसका विवेक-अविवेक के साथ सीधा सम्बन्ध नहीं होता है। परन्तु ज्ञान के साथ विवेक-अविवेक का सम्बन्ध होता है, विवेक युक्त ज्ञान सम्यक् ज्ञान होता है, विवेक विरोधी ज्ञान मिथ्याज्ञान होता है। इसलिए ज्ञान सम्यक् और मिथ्या होता है। अज्ञान का सम्बन्ध दर्शनमोहनीय से अर्थात् दर्शन व दृष्टि से है। जहाँ सम्यग्दर्शन है, वहाँ ज्ञान है और जहाँ सम्यग्दर्शन का अभाव है, वहाँ अज्ञान है। मिथ्याज्ञान (अज्ञान) के दो अर्थ होते हैं - ज्ञान का अभाव और मिथ्याज्ञान। जब ज्ञान का आवरण होता है, तब ज्ञान का अभाव होता है। लेकिन जब ज्ञानावरण का क्षयोपशम होता है और साथ ही मिथ्यात्व मोहनीय का उदय होता है, तो वह ज्ञान मिथ्याज्ञान कहलाता है। मिथ्याज्ञान दो प्रकार के होते हैं - ज्ञान की अपेक्षा मति आदि तीन अज्ञान और प्रमाण की अपेक्षा से संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय ये तीनों अज्ञान रूप हैं। __मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान में संशयादि तीन तथा विभंगज्ञान में संशय को छोड़कर विपर्यय और अनध्यवसाय ये दो भेद हो सकते हैं, क्योंकि विभंगज्ञान में इन्द्रियव्यापार नहीं होता है। कन्हैयालाल लोढ़ा के अनुसार अज्ञानावरणीय कोई कर्म नहीं है। मोहनीय कर्म में जितनी कमी होगी, उतना ही दर्शन व ज्ञान गुण का विकास होता है। मोहनीय कर्म की कमी से, ज्ञान गुण का आदर होने से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होकर ज्ञान गुण का विकास होता है। यही ज्ञानावरणीय कर्म का विकास मिथ्यात्व के कारण विपरीत (विपर्यास) अवस्था को प्राप्त हो जाता है। इसे ही अज्ञान कहा जाता है। अज्ञान का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। अज्ञान ज्ञान का ही विपरीत रूप है। अत: मिथ्यात्वी का जितना ज्ञान बढ़ता है, उसका यह ज्ञान ही अज्ञान का रूप धारण करता है। इसीलिए मिथ्यात्वी के ज्ञानावरण के क्षयोपशम को ही अज्ञान का क्षयोपशम कहा जाता है। इस अज्ञान में से मिथ्यात्व को निकाल दें तो वही अज्ञान ज्ञान कहलाता है। श्रुतज्ञान के ज्ञान रूप होने से मतिज्ञान व अवधिज्ञान ज्ञान रूप होते हैं। श्रुत के अज्ञान रूप होने से मतिज्ञान व अवधिज्ञान, अज्ञान रूप होते हैं। इन्द्रिय ज्ञान के प्रभाव से भोगेच्छा जागृत होती है, भोगवती बुद्धि इस प्रभाव को पुष्ट करती है, वही मति अज्ञान है। विवेकवती बुद्धि इस प्रभाव को क्षीण करती है, यह मतिज्ञान है। 18. बन्धतत्त्व, पृ. 93 19. बन्धतत्त्व, पृ. 49 20. बन्धतत्त्व, पृ. 44-46