Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
में अपना एवं अपने गुरु का नाम देकर राजा जयसिंह के राज्य में संवत् 1175 की कार्त्तिक शुक्ला पंचमी के दिन इस वृत्ति की समाप्ति हुई | 120
बृहद्वृत्ति की रचना में निमित्त
मलधारी हेमचन्द्र इस टीका की रचना के कारण का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि दु:षमा कालचक्र के प्रभाव से शिष्यों की बुद्धि आदि का ह्रास होता जा रहा है, इसलिए वर्तमान में कुछ मंदमति शिष्यों के लिए विशेषावश्यकभाष्य आदि ग्रन्थ गूढार्थ व संक्षिप्त प्रतीत हो रहे हैं अर्थात् सामान्य जन को समझने में कठिनाई आ रही है। इसलिए मंदतम मति बाले शिष्यों को विषय वस्तु का बोध कराने के लिए उन्होंने विशेषावश्यकभाष्य पर बृहद्वत्ति की रचना की। 121
विशेषावश्यकभाष्य का मलधारी हेमचन्द्र की बृहद्वृत्ति सहित वीर सं. 2427-2441 में शाह हरखचंद भूरा भाई, बनारस द्वारा, दिव्यदर्शन ट्रस्ट, बम्बई द्वारा ई. 1982 में दो भागों में प्रकाशन हुआ है।
समीक्षण
भारतीय संस्कृति में जैनदर्शन का अनूठा स्थान है। सभी भारतीय दर्शनों ने अपनी मान्यताओं को पुष्ट करते हुए अन्य दर्शनों की मान्यताओं का खण्डन किया है। जैनदर्शन ही एक ऐसा दर्शन है, जिसमें स्याद्वाद के आधार से सभी दर्शनों की मान्यताओं को एक अपेक्षा से सही मानते हुए उनके समन्वय का प्रयास किया गया है। जैनदर्शन में जीव - अजीव से सम्बन्धित सभी मान्यताओं का सूक्ष्मदृष्टि से विवेचन किया गया है, जो कि अन्य दर्शनों में उपलब्ध नहीं होता है । प्रायः सभी भारतीय दर्शनों में किसी न किसी रूप में जीव की अंतिम अवस्था निर्वाण, मोक्ष अथवा मुक्ति को स्वीकार किया गया है एवं उसकी प्राप्ति हेतु विभिन्न उपायों का उल्लेख भी किया गया है। जैनदर्शन भी मोक्ष को स्वीकार करता है और उसको प्राप्त करने के लिए तीन मुख्य साधन प्रतिपादित करता है
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र । मोक्ष - प्राप्ति के कारणों में दर्शन (सम्यग् श्रद्धा) के बाद ज्ञान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ज्ञान के बिना चारित्र (क्रिया) अंधा होता है। बिना चारित्र के ज्ञान लंगड़ा होता है, जो मोक्ष तक नहीं ले जा सकता है। मोक्ष के इन तीन हेतुओं का एक साथ विस्तार से वर्णन विशेषावश्यकभाष्य में प्राप्त होता है ।
विशेषावश्यकभाष्य आचार्य जिनभद्रगणि (सातवीं शती) की कृति है । जिनभद्रगणि ने आवश्यक सूत्र पर आचार्य भद्रबाहु रचित आवश्यक निर्युक्ति के विषय को आधार बनाते हुए निर्युक्ति में जो विषय छूट गया उसको स्पष्ट करते हुए विशेषावश्यकभाष्य की रचना की है।
विशेषावश्यकभाष्य का मातृ स्थान आवश्यकसूत्र है । जैन आचार में आवश्यक सूत्र का अग्रणी स्थान है। इसके बिना जैनाचार शून्य है, क्योंकि साधक के दिन की शुरुआत इसी से होती है।
'आवश्यक' का अर्थ है- अवश्य करणीय । संयम साधना के अंगभूत जो अनुष्ठान आवश्यकरूप से करणीय होते हैं, वे 'आवश्यक' कहलाते हैं ।
जो क्रियानुष्ठान साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध संघ को, सूर्य उदय से पहले और सूर्य अस्त के पश्चात् लगभग एक मुहूर्त काल में प्रतिदिन और प्रतिरात्रि उभयकाल करना 120. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 3, पृष्ठ 445-446
121. तस्य च यद्यपि श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यैः श्रीकोट्याचार्यैश्च वृत्तिर्विहिता वर्तते, तथाऽप्यगतिगम्भीरवाक्यात्मकत्वात्, किञ्चित्संक्षेपरूपत्वाच्च दुःषमानुभावतः प्रज्ञादिभिरपचीयमानानां किमपिविस्तराभिधानरुचीनां शिष्याणां नाऽसौ तथाविधोपकारं सांप्रतमाधातुं क्षमा, इति विचिन्त्य मुत्कलतरवाक्यप्रबन्धरूपा किमपिविस्तरवती च मन्दमतिनाऽपि मया मन्दतममति-शिष्यावबोधार्थं, श्रुताभ्याससंपादनार्थं च वृत्तिरियमारभ्यते । विशेषावश्यकभाष्य बृहद्वृत्ति, भाग 1, पृ. 2