Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन ज्ञान की परिभाषा
'भूतार्थप्रकाशकं ज्ञानम्' अर्थात् सत्यार्थ का प्रकाश करने वाले गुण विशेष को ज्ञान कहते हैं।" वाचस्पति मिश्र ने भामती में ज्ञान का लक्षण बताते हुए कहा है कि "योऽयमर्थप्रकाशफलम्” अर्थात् जिससे अर्थ अथवा विषय प्रकाशित हो वह ज्ञान है ।
साध्वी डॉ. प्रियलताश्री ने अपने शोधग्रन्थ 'जैनदर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा में ज्ञान को कर्त्ता, करण और दोनों में अभेद के रूप में परिभाषित किया हैं -
1. 'जानाति इति ज्ञानम्' अर्थात् जो जानता है या जानने की क्रिया करता है, वह ज्ञान है। यहाँ क्रिया एवं कर्त्ता में अभेदोपचार करके ज्ञान को कर्त्ता अर्थात् आत्मा कहा गया है।
2. ज्ञायते अवबुध्यते वस्तुतत्त्वमिति ज्ञानम्' अर्थात् आत्मा वस्तुतत्त्व को जिसके द्वारा जानती है, वह ज्ञान है । यहाँ ज्ञान को साधन या करण माना गया है।
3. 'ज्ञायते अस्मिन्निति ज्ञानमात्मा' जिसको जाना जाता है, वह ज्ञान है, वही आत्मा है। ज्ञान की यह अधिकरणमूलक व्युत्पत्ति है। यहाँ परिणाम ज्ञान और परिणामी आत्मा में अभेदोपचार किया गया है।
ज्ञानी के लक्षण
अनेक शास्त्रों का अभ्यासी सच्चा ज्ञानी हो यह आवश्यक नहीं, किन्तु जिसमें अग्रांकित दस लक्षण होते हैं, वह सच्चा ज्ञानी है। - 1. वह क्रोध रहित होता है, 2. वह वैराग्यवान् होता है, 3. वह जितेन्द्रिय होता है, 4. वह क्षमावंत होता है, 5. वह दयालु होता है, 6. वह सभी को हित, मित और प्रिय वचन बोलने वाला होता है, 7. वह निर्लोभी होता है, 8. वह निर्भय होता है, 9. वह शोक रहित होता है, 10. वह उदार, तटस्थ और त्यागी होता है।
ज्ञान और आत्मा का सम्बन्ध
ज्ञान और आत्मा का सम्बन्ध दण्ड और दण्डी के समान संयोग सम्बन्ध नहीं है। संयोग सम्बन्ध दो पृथक्-पृथक् द्रव्यों में सम्भव है। ज्ञान और आत्मा का अस्तित्व पृथक् सिद्ध नहीं है, अतः ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक (मौलिक) गुण है। ज्ञान के अभाव में आत्मा का अस्तित्व नहीं है। व्यवहार नय से ज्ञान और आत्मा में भेद मान सकते हैं, लेकिन निश्चय नय से ज्ञान और आत्मा में किसी भी प्रकार का भेद नहीं है। वस्तुतः आत्मा ही ज्ञान है और ज्ञान ही आत्मा है। दोनों में किसी भी प्रकार का भेद नहीं किया जा सकता है। तैत्तिरीयोपनिषद् में भी कहा है कि 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' अर्थात् सत्य ज्ञान अनन्त है, ब्रह्म रूप है।
ज्ञान आत्म-शक्ति रूप
ज्ञान आत्मा का प्रकाश है, जो सदा एक रस और शाश्वत है, बन्धनों से मुक्त रखने में सक्षम है। इसी तरह ज्ञान जीवन का सर्वोपरि तत्त्व है, वह जीवन का बहुमूल्य धन है। सभी प्रकार की भौतिक सम्पत्तियाँ तो नष्ट हो जाती हैं, किन्तु ज्ञानरूप आध्यात्मिक सम्पत्ति इस भव में, पर भव में और दोनों भवों में प्रत्येक परिस्थिति में साथ रहती है। ज्ञान जीव का वह प्रकाश है, जो सभी द्वन्द्रों, उलझनों और अन्धकार से मनुष्य को निकालकर शाश्वत पथ पर अग्रसर करता है ज्ञान स्वयं ही
4. षट्खण्डागम, पुस्तक 1, सु. 1.1.4, पृ. 142 और साक्षान्मूतशेषपदार्थपरिच्छेदकमवधिज्ञानम् पृ. 358
5. जैनदर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा, पृ. 55
6. जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया। आचारांगसूत्र 5.5 पृ. 182, समयसार, गाथा 7