Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
View full book text
________________
द्वितीय अध्याय - ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय
[55]
ज्ञान का ज्ञेय विषय
जिससे जाना जाता है, वह ज्ञान है तथा जिसे जाना जाता है, वह ज्ञेय है। जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा का निज गुण अथवा स्वभाव है । निजगुण या स्वभाव उसे कहते हैं जो सदैव अपने गुणी के साथ रहता है, उससे कभी भी अलग नहीं होता है। जैन दर्शन में आत्मा को अनादि अनन्त माना है, इस अपेक्षा से ज्ञान भी आत्मा में अनादि - अनन्त काल से रहा हुआ है। आत्मा के स्वरूप आदि का जितना भी उल्लेख प्राप्त होता है, उसका मूल केन्द्र ज्ञान ही होता है। अतः आत्मा सभी गुणों को तो ज्ञान से जान सकता है, परन्तु स्वयं ज्ञान को कैसे जाना जाए ? जैसे अग्नि स्वयं को नहीं जला सकती है, वह पदार्थ को ही जलाती है, वैसे ही ज्ञान, ज्ञान को कैसे जान सकता है ? अर्थात् वह मात्र दूसरों को ही जानता है, स्वयं को नहीं। क्या ज्ञान कभी ज्ञेय बनता है कि नहीं ? ज्ञेय ACT अर्थ है ज्ञान का विषय बनने वाला पदार्थ अर्थात् जिसका बोध हाता है, वह ज्ञेय हैं । ज्ञेय होने से ज्ञाता आत्मा और उसके दूसरे गुण भी ज्ञेय हैं। उनकी विभिन्न पर्याय भी ज्ञेय है, क्योंकि ये भी ज्ञान में प्रतिबिम्बित होती हैं। भारतीय दर्शन के सभी दार्शनिकों के सामने यह समस्या थी की ज्ञान मात्र दूसरों को ही जानता है, अथवा अपने आपको भी जान सकता है ? सभी दार्शनिकों ने अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार इसका समाधान करने का प्रयत्न किया है।
मीमांसा दर्शन की मान्यता है कि जैसे आंख दूसरे पदार्थों देख सकती है, पर स्वयं को नहीं देख सकती है वैसे ही ज्ञान में पर-पदार्थ को जानने की शक्ति तो होती है, लेकिन स्वयं को जानने की शक्ति उसमें नहीं होती है, अतः ज्ञान अज्ञेय है। जैनदार्शनिकों ने इसका खण्डन करते हुए कहा है क्योंकि ज्ञान अपने आपको जानता हुआ ही दूसरे पदार्थों का जानता है कि यदि ज्ञान में जानने की शक्ति है, तो दूसरों के समान यह स्वयं अपने आपकों क्यों नहीं जान सकता है? जैसेकि दीपक स्वयं को भी प्रकाशित करते हुए अपने सामर्थ्य के अनुसार अन्य पदार्थों को भी प्रकाशित करता है। दीपक को प्रकाशित करने के लिए दूसरे दीपक की आवश्यकता नहीं होती है, इसी प्रकार ज्ञान को जानने के लिए भी ज्ञान के अलावा अन्य किसी दूसरे पदार्थ की आवश्यकता नहीं होती है। अतः ज्ञान दीपक के समान स्व और पर प्रकाशक है। यदि दीपक में स्वयं को प्रकाशित करने की शक्ति न हो, तो वह दूसरे पदार्थों को भी प्रकाशित नहीं कर सकेगा। वैसे ही ज्ञान यदि स्वयं को नहीं जान सकता है, तो पर पदार्थों को भी नहीं जान सकता है।
कणाद और गौतम का मानना है कि ज्ञान स्वयं को तो नहीं जान सकता है, लेकिन उसको जानने के लिए दूसरा ज्ञान साधन बनता है, जिसे अनुव्यवसायात्मक ज्ञान कहते हैं। इस प्रकार ज्ञान ज्ञेय के कोटि में आ सकता है। जैनदार्शनिकों ने इसका भी खण्डन किया है कि पहले ज्ञान को जानने के लिए दूसरा ज्ञान उत्पन्न होता है, इस प्रकार दूसरे के लिए तीसरा ज्ञान उत्पन्न होता है, इस परम्परा में जो अन्तिम ज्ञान होगा, यह तो अज्ञेय ही रह जाएगा तथा इस प्रकार अनवस्था दोष भी प्राप्त होता है अतः यह मानना अधिक उचित है कि ज्ञान दीपक के समान स्व-पर को प्रकाशित करता है। जैनदर्शन के अनुसार ज्ञान स्व- पराभासी है, जिसका अर्थ है, कि वह अपने आपको जानता हुआ दूसरों को जानता है।
आत्मा का मुख्य लक्षण चेतना है। चेतना का अर्थ है उपयोग। उपयोग का अर्थ है ज्ञान और दर्शन। अतः आत्मा चेतन है, इसका अर्थ है कि वह ज्ञान दर्शन स्वरूप है। इस प्रकार ज्ञान आत्मा का विशिष्ट गुण है। ज्ञान से ही आत्मा के स्वरूप और आत्मा से भिन्न पुद्गलों का ज्ञान होता है,