Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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________________ [56] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन ज्ञान से आत्मा पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष के स्वरूप को जानता है। आत्मा के प्रमेयत्व आदि गुण तो आत्मा से भिन्न जड़ पदार्थों में भी पाये जाते हैं, लेकिन ज्ञान गुण आत्मा का असाधारण गुण है, जो एक मात्र आत्मा में ही होता है। हम यह कहें कि एक ज्ञान गुण में आत्मा के अन्य सभी गुणों का समावेश हो जाता है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। जैनदर्शन के अनुसार धर्मास्तिकाय आदि छह द्रव्यों के अलावा संसार में कुछ भी नहीं है। इन छह द्रव्यों में जीव द्रव्य ज्ञाता भी है और ज्ञेय भी है, शेष पांच द्रव्य मात्र ज्ञेय हैं। ज्ञाता में ज्ञेय पदार्थ प्रतिक्षण झलकते रहते हैं। छद्मस्थ का ज्ञान मर्यादा से युक्त होता है, जबकि केवली का ज्ञान मर्यादा से रहित होता है। केवली केवलज्ञान में सभी पदार्थों और पदार्थों की अनन्तानंत पर्यायों को जानते हैं। संसार की एक भी ऐसी वस्तु नहीं है, जो केवलज्ञान का ज्ञेय नहीं बनती हो। संसार के चेतन अथवा जड़ रूप प्रत्येक पदार्थ ज्ञान का विषय होने से ज्ञेय होते हैं। ज्ञान का विषय मूर्त और अमूर्त सभी प्रकार के पदार्थ हो सकते हैं। स्थूल और सूक्ष्म सभी प्रकार के पदार्थ ज्ञान के विषय हैं।। वैशेषिक दर्शन के अनुसार जब तक आत्मा में ज्ञान है तब तक आत्मा की मुक्ति भी नहीं हो सकती है। वैशेषिक दर्शन में मुक्तावस्था में आत्मा में ज्ञान स्वीकार नहीं किया गया है। लेकिन यह सही नहीं है क्योंकि ज्ञान से शून्य तो जड़ होता है, मुक्तावस्था में ज्ञान नहीं मानने पर वह अजीववत् हो जाएगा, जो कि किसी भी बुद्धिमान् को स्वीकार नहीं है। जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान दु:ख का कारण नहीं है, किन्तु राग-द्वेष दु:ख के कारण कहे गए हैं। ज्ञान से तो दुःख को दूर किया जाता है, ज्ञान और विवेक के कारण ही आत्मा में से विषमता दूर होकर समता उत्पन्न होती है। बौद्ध केवल विशेष को, सांख्य केवल सामान्य को और नैयायिक-वैशेषिक सामान्य एवं विशेष दोनों को स्वतंत्र रूप से ज्ञान का ज्ञेय स्वीकार करते हैं। जैनदर्शन के अनुसार ज्ञान का विषय द्रव्य और पर्याय अथवा सामान्य-विशेषात्मक रूप वस्तु है, क्योंकि उसके अलावा अन्य वस्तु ज्ञेय नहीं बन सकती है। संसार में पदार्थ अनन्त हैं, इसलिए उन अनन्त पदार्थों को विषय करने वाला ज्ञान भी अनन्त है। किन्तु आवरण-दशा में ज्ञान सीमित होता है, अतः सीमित पदार्थ ही हमारे ज्ञेय बनते हैं। निरावरण दशा में ज्ञान अनन्त हो जाता है, अतः वह अनन्त पदार्थों को जान सकता है। इन्द्रिय और मन के माध्यम से ही हमारा ज्ञान ज्ञेय को जानता है। इन्द्रियों की शक्ति सीमित है, वे मन के साथ अपने विषयों को स्थापित कर ही जान सकती हैं। मन का सम्बन्ध एक समय में एक इन्द्रिय से ही होता है। अतः एक समय में एक पदार्थ की एक ही पर्याय जानी जा सकती है। अत: ज्ञान को ज्ञेयाकार मानने की आवश्यकता नहीं। यह सीमा आवृत्त ज्ञान के लिए है, अनावृत्त ज्ञान के लिए नहीं। अनावृत ज्ञान में तो एक साथ सभी पदार्थ जाने जा सकते हैं। ज्ञान और ज्ञेय का सम्बन्ध - ज्ञान के द्वारा संसार में समस्त ज्ञेय पदार्थों को जाना जाता है। सामान्यत: ज्ञान और ज्ञेय दोनों स्वतंत्र हैं, किन्तु आत्मा के ज्ञेय होने पर उसे भी स्वकीय ज्ञान से ही जाना जाता है। ज्ञान आत्मा का गुण है। जब हम पदार्थ को जानते हैं, तब ज्ञान उत्पन्न नहीं होता, किन्तु उस समय उसका प्रयोग होता है, जानने की शक्ति तो आत्मा में रहती है। अतः ज्ञान की प्रवृत्ति होती है, उत्पत्ति नहीं। ज्ञानी और ज्ञेय का विषय-विषयीभाव सम्बन्ध है। प्रमाता का ज्ञान उसका स्वभाव है इसलिए वह विषयी है। अर्थ ज्ञेय स्वभाव है, इसलिए वह विषय है। दोनों स्वतंत्र हैं तथापि ज्ञान में अर्थ को 8. जैनदर्शन : स्वरूप और विश्लेषण, पृ. 327-328