Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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प्रथम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति : एक परिचय आवश्यक है, उसे 'आवश्यक' कहते हैं और उसके प्रतिपादक क्रियानुष्ठान के साथ बोले जाने वाले पाठ-समूह रूप सूत्र को 'आवश्यक सूत्र' कहते हैं अर्थात् श्रमणचर्या में जो मूलतः सहायक होता है, जिनका ज्ञान होना प्रत्येक श्रमण को मूलतः अपेक्षित है, वह आवश्यक है। जिनका इसमें वर्णन है, वह आवश्यक सूत्र है। प्रस्तुत अध्याय में आवश्यक सूत्र एवं उसके व्याख्या साहित्य का वर्णन करते हुए मुख्य रूप से आवश्यक कर्त्ता की समीक्षा की गई है।
आवश्यकसूत्र जैनाचार का प्राण होते हुए भी इसके कर्ता के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। कतिपय विद्वानों का मानना है कि सम्पूर्ण आगम को तीर्थंकर भगवान् अर्थ रूप में फरमाते हैं और उसी अर्थ का आश्रय लेकर गणधर (तीर्थंकरों के प्रधान शिष्य) उसको सूत्र रूप में गूंथते हैं। इस अपेक्षा से गणधर ही आवश्यकसूत्र के कर्ता हैं। जबकि कतिपय विद्वानों का मानना है कि आगम दो प्रकार के होते हैं - अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य आगम। अंगप्रविष्ट सूत्रों की रचना गणधर करते हैं, तथा अंगबाह्य की रचना आचार्य शिष्यों के उपकार के लिए करते हैं। नंदीसूत्र में वर्णित आगमविभाजन में आवश्यक सूत्र को अंगबाह्य आगमों के साथ रखा गया है। इसलिए वह स्थविर आचार्यों द्वारा रचित है। इस प्रकार आवश्यक के कर्ता के सम्बन्ध में दो मत प्रचलित हैं।
तीर्थंकर भगवान् केवलज्ञान होने के बाद चतुर्विध संघ की स्थापना करते हैं। जिस दिन संघ स्थापना होती है, उस दिन भी साधु-साध्विओं के लिए आवश्यक अवश्यकरणीय होता है एवं उस दिन दीक्षित सभी साधु-साध्वी विशिष्ट मति वाले हों यह आवश्यक नहीं, अतः उनके लिए आवश्यक की आवश्यकता होती ही है। अतः आवश्यक की भी रचना उसी दिन होना संभव है। किन्तु वर्तमान में जो आवश्यक प्राप्त होता है, वह पूर्णतः गणधर कृत नहीं है। उसमें काल क्रम से पूर्वाचार्यों ने परिवर्तन किया है। अत: वर्तमान में प्राप्त आवश्यक का कुछ भाग गणधरकृत और कुछ भाग स्थविरकृत हो सकता है। यही मानना अधिक तर्क संगत प्रतीत होता है। आवश्यक के मुख्य रूप से छह अध्ययन होते हैं, जिन्हें षडावश्यक के रूप में जाना जाता है। -
1. सामायिक - समभाव की प्राप्ति; मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और सावध-अशुभयोग से विरति रूप क्रिया; ज्ञान, दर्शन, चारित्र में प्रवृत्ति रूप क्रिया।
2. चतुर्विंशतिस्तव-चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति, अर्हन्त देव के यथार्थ असाधारण गुणों का कीर्तन। 3. वंदना - विनय, क्षमादि गुणवान् गुरु की प्रतिपत्ति।
4. प्रतिक्रमण - पाप से पीछे लौटना प्रतिक्रमण कहलाता है। अकरणीय कार्य के करने पर पश्चात्ताप करना गृहीत व्रतों में दोष लगने पर उनकी आलोचना करना प्रतिक्रमण है।
5. कायोत्सर्ग - काया की ममता छोड़ना, व्रतों के अतिचार रूप व्रण की चिकित्सा करना। 6. प्रत्याख्यान - तप करना, त्याग में वृद्धि करना, व्रतों के अतिचार रूप घावों को पूरना।
जैन वाङ्मय में आवश्यकसूत्र पर विपुल व्याख्या साहित्य प्राप्त होता है, जो मुख्य रूप से पांच भागों में है - 1. नियुक्ति (आवश्यकनियुक्ति), 2. भाष्य (विशेषावश्यकभाष्य), 3. चूर्णि (आवश्यकचूर्णि), 4. वृत्ति (आवश्यकवृत्ति), 5. स्तबक (टब्बा) तथा वर्तमान समय में हिन्दी, गुजराती, अंग्रेजी आदि भाषाओं में भी आवश्यक पर विवेचन प्राप्त है।
(1) नियुक्ति - नियुक्ति का सामान्य अर्थ व्याख्या है। सूत्र में निश्चय किया हुआ अर्थ जिसमें निबद्ध हो उसे नियुक्ति कहते हैं। आगमों पर आर्या छंद में प्राकृत गाथाओं में लिखा हुआ संक्षिप्त विवेचन नियुक्ति है। ईसवी सन् की पांचवीं-छठी शताब्दी के पूर्व ही, नियुक्तियाँ लिखी जाने लगी थीं।