Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
इसके अलावा आवश्यक सूत्र (गुजराती अनुवाद सहित) भीमसी माणेक, बम्बई द्वारा 1906 ई. में, आचार्य घासीलालजी द्वारा संस्कृत, हिन्दी और गुजराती व्याख्या सहित ई. 1958 में जैन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट से, आचार्य अमोलकऋषि जी कृत हिन्दी अनुवाद सहित आवश्यक सूत्र वी. सं. 2446 में, महासती सुप्रभा 'सुधा जी' कृत हिन्दी अनुवाद सहित ई.1985 में आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर द्वारा तथा श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, ब्यावर द्वारा आवश्यक सूत्र का हिन्दी अनुवाद प्रकाशति हुआ है। जिनभद्रगणि एवं उनका विशेषावश्यकभाष्य
आवश्यक सूत्र के छह अध्ययनों में से सामायिक नामक प्रथम अध्ययन का वर्णन करते हुए विस्तृत रूप से श्रीमद् जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य लिखा है। इस भाष्य में प्राकृत भाषा की 3603 गाथाएं हैं। यह ग्रंथ शक संवत् 531 में लिखा गया है। विशेषावश्यकभाष्य के प्रणेता आचार्य जिनभद्रगणि अपनी महत्त्वपूर्ण कृतियों के कारण जैन साहित्य के इतिहास में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। आपका उत्तर काल विक्रम संवत् 650 के आसपास का है।
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के विशेषावश्यकभाष्य की रचना ऐसी शैली में हुई है कि उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि दार्शनिक जगत् के अखाड़े में सर्वप्रथम जैन प्रतिमल्ल का स्थान यदि किसी को दिया जाए तो वह आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण को ही दिया जा सकता है। उनकी विशेषता यह है कि उन्होंने दर्शन के सामान्य तत्त्वों के विषय में ही तर्कवाद का अवलम्बन नहीं लिया, किन्तु जैन दर्शन की प्रमाण एवं प्रमेय सम्बंधी छोटी-बड़ी महत्त्वशाली सभी बातों के सम्बन्ध में तर्कवाद का प्रयोग कर दार्शनिक जगत् में जैन दर्शन को एक सर्वतन्त्र स्वतन्त्र रूप से ही नहीं, प्रत्युत सर्वतन्त्र समन्वय रूप में भी उपस्थापित किया है। उनकी युक्तियाँ और तर्क शैली इतनी अधिक व्यवस्थित हैं कि आठवीं शताब्दी में होने वाले महान् दार्शनिक हरिभद्र तथा बारहवीं शताब्दी में होने वाले आगमों के समर्थ टीकाकार मलयगिरि भी ज्ञान-चर्चा में आचार्य जिनभद्र क्षमाश्रमण की ही युक्तियों का आश्रय लेते हैं। इतना ही नहीं, अपितु अठारहवीं शताब्दी में होने वाले नव्यन्याय के असाधारण विद्वान् उपाध्याय यशोविजयजी भी अपने 'जैनतर्क भाषा, अनेकांत व्यवस्था, ज्ञानबिन्दु' आदि ग्रन्थों में उनकी दलीलों को केवल नवीन भाषा में उपस्थित कर सन्तोष मानते हैं, उन ग्रंथों में अपनी ओर से नवीन वृद्धि शायद ही की गई है। इनसे स्पष्ट है कि सातवीं शताब्दी में आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने सम्पूर्ण-रूपेण प्रतिमल्ल का कार्य सम्पन्न किया था। जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण का जीवन और व्यक्तित्व
आचार्य जिनभद्र कब हुए और किनके शिष्य थे, इस संबंध में परस्पर विरोधी उल्लेख मिलते हैं और वे भी 15 वीं या 16 वीं शताब्दी में लिखी गई पट्टावलियों में हैं। अतः हम यह मान सकते हैं कि उन्हें सम्यक् प्रकारेण पट्ट-परम्परा में संभवतः स्थान नही मिला, परन्तु उनके साहित्य का महत्त्व समझकर तथा जैन साहित्य में सर्वत्र उनके ग्रन्थों के आधार पर लिखे गए विवरण देखकर उत्तरकालीन आचार्यों ने उन्हें महत्त्व प्रदान किया है।
ईसा की प्रथम शताब्दी के लगभग मथुरा में तथा पाँचवीं शताब्दी के लगभग वल्लभी नगरी में जैन धर्म का प्राबल्य दिखाई देता है। जैन दृष्टि से वल्लभी नगरी का महत्त्व उसके नष्ट होने तक रहा है और उसके नष्ट होने के बाद वल्लभी नगरी के निकटवर्ती पालीताणा आदि नगर जैन धर्म के इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण केन्द्र रहे हैं।