Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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[32] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
2. फल द्वार - ज्ञान और क्रिया से मोक्ष होता है, अतः आवश्यक अनुयोग का अंतिम फल मोक्ष बताया है।
(गाथा 3) 3. योगद्वार - जिस प्रकार कुशल वैद्य बालक के लिए उचित आहार की सम्मति देता है, उसी प्रकार मोक्ष के इच्छुक भव्य जीव के लिए आवश्यक का आचरण उपयुक्त है। आचार्य शिष्य को सर्वप्रथम सामायिक देता है उसके बाद शेष श्रुत का ज्ञान देता है। गुरु किस प्रकार शिष्य को श्रुत ज्ञान देता है उसका क्रम इस प्रकार दिया है -प्रव्रज्या, शिक्षापद, अर्थ ग्रहण, अनियतवास, निष्पत्ति, विहार सामाचारी स्थिति आदि।
(गाथा 4 से 10 तक) 4. मंगल द्वार - मंगल का स्वरूप, उसके भेद, मंगल की आवश्यकता आदि का कथन करते हुए उसे निक्षेप आदि के माध्यम से समझाया गया है। मंगल तीन प्रकार का होता है - १ शास्त्र के आदि में शास्त्र की अविघ्नपूर्वक समाप्ति के लिए, २ शास्त्र के मध्य में शास्त्र की स्थिरता के लिए, ३ शास्त्र के अन्त में शिष्य-प्रशिष्यादि वंशपर्यन्त शास्त्र को स्थिर करने के लिए। मंगल का शब्दार्थ इस प्रकार है - 'मयतेऽधिगम्यते येन हितं तेन मङ्गलं भवति' अर्थात् जिससे हित की सिद्धि होती है, वह मंगल है, इसी प्रकार मंगल के और भी अर्थ किये हैं। नाम आदि चार निक्षेप से भावमंगल के स्वरूप का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। द्रव्य मंगल का वर्णन करते हुए नयों के स्वरूप आदि का वर्णन किया गया है। भाष्यकार ने नंदी को भी मंगल माना है, उसके भी मंगल की तरह चार प्रकार हैं। उनमें से भावनंदी पंचज्ञानरूप है।
(गाथा 11 से 79 तक) मंगल द्वार के अन्तर्गत ही ज्ञानपंचक में पांचों ज्ञानों का स्वरूप, क्षेत्र, स्वामी, विषय, ज्ञान का क्रम, भेद-प्रभेद आदि का विस्तृत विवेचन किया गया है। मति आदि पांच ज्ञानों में से मति और श्रुत परोक्ष एवं शेष तीन प्रत्यक्ष ज्ञान हैं। जो ज्ञान द्रव्येन्द्रिय और द्रव्यमन से उत्पन्न होता है वह परोक्ष ज्ञान कहलाता है। इसकी सिद्धि के लिए अनेक हेतु दिये हैं। जो ज्ञान सीधा जीव (आत्मा) से उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है। इस प्रसंग पर वैशेषिकादि सम्मत इन्द्रियोत्पन्न प्रत्यक्ष का भी खण्डन किया गया है।
(गाथा 80 से 836 तक) १-२. मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के लक्षण, भेद की चर्चा करते हुए आचार्य कहते हैं कि जो विज्ञान इन्द्रिय मनोनिमित्तक तथा श्रुतानुसारी है, वह भाव श्रुत है, शेष मति है। श्रुतज्ञान मतिपूर्वक ही होता है, लेकिन मति श्रुतपूर्वक नहीं होता इसकी विस्तृत चर्चा की गई है। द्रव्यश्रुत और भावश्रुत में संबंध, मति-श्रुत के विषय इत्यादि का वर्णन किया गया है। मति
और श्रुत के भेद को और स्पष्ट करने के लिए वल्क और शुम्ब के उदाहरण की युक्तियुक्त परीक्षा करते हुए भाष्यकार ने यह सिद्ध किया है कि मति वल्क के समान है और भावश्रुत शुम्ब के समान है।
मतिज्ञान का विशेष वर्णन करते हुए इसके मुख्य दो भेद किए गये हैं - श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित। इन दोनों में से श्रुतनिश्रित के चार भेदों अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा के स्वरूप एवं प्रभेदों पर मतान्तर सहित प्रकाश डाला गया है। श्रुतनिश्रित के कुल 336 और अश्रुतनिश्रित के औत्पातिकी आदि चार बुद्धियां, इस प्रकार विभिन्न प्रकार से मतिज्ञान के भेदों को बताया गया है। संशय ज्ञान है या अज्ञान, इसकी चर्चा करते हुए सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि की विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है। अवग्रहादि की काल मर्यादा बताते हुए भाष्यकार ने इन्द्रियों की प्राप्यकारिता और अप्राप्यकारिता के समीप, दूरी, काल इत्यादि से