Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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प्रथम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति : एक परिचय ही उपयोगी है और इसी भाष्य का अनुसरण परवर्ती रचनाकारों ने किया है। संक्षिप्त में कहें तो इस भाष्य में जैन आचार-विचार के मूलभूत समस्त तत्त्वों का सुव्यवस्थित संग्रह किया गया है।
भाष्यकार ने मूलनियुक्ति के भावों को स्पष्ट करते हुए प्रसंगानुसार अनेक महत्वपूर्ण विषयों का विस्तृत विवेचन भी प्रस्तुत किया है। यह ग्रंथ जैन आगमों को समझने की कुंजी है। इस ग्रंथ में सभी महत्त्वपूर्ण विषयों की चर्चा की गई है। बौद्ध-त्रिपिटक का सारग्राही ग्रन्थ 'विशुद्धिमार्ग' है, उसी प्रकार विशेषावश्यकभाष्य जैन-आगम का सारग्राही है। साथ ही उसकी यह विशेषता है कि उसमें जैन-तत्त्व का निरूपण केवल जैन-दृष्टि से ही नहीं किया गया, अपितु अन्य दर्शनों की तुलना में जैन-तत्त्वों को रखकर समन्वयगामी मार्ग द्वारा प्रत्येक विषय की चर्चा की गयी है। विषय-विवेचन के प्रसंग में जैनाचार्यों के अनेक मतभेदों का खण्डन करते हुए भी जिनभद्रगणि उन पर आँच नही आने देते। कारण यह है कि ऐसे प्रसंग पर वे आगमों के अनेक वाक्यों का आधार देकर अपना मंतव्य उपस्थित करते हैं। किसी भी व्यक्ति की कोई भी व्याख्या यदि आगम के किसी वाक्य से विरुद्ध हो, तो वह उन्हें असह्य प्रतीत होती है और वे प्रयत्न करते हैं कि, उसके तर्क-पुरस्सर समाधान ढूँढने का भी प्रयास किया जाए। जैसेकि केवली को ज्ञान-दर्शन युगपद् होते हैं, या क्रमिकरूप से, इस विषय में श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में मतभेद है। दिगम्बर परम्परा केवल ज्ञान-केवल दर्शन को युगपद् स्वीकार करती है। सिद्धसेनगणि ने भी सन्मतितर्क प्रकरण में इसका समर्थन किया है। भाष्यकार ने आगमिक मत को पुष्ट करते हुए क्रमवाद का समर्थन किया है। आगमिक परम्परा को पुष्ट करने की दृष्टि से ही उन्होंने मल्लवादी आचार्य के मत का भी खण्डन किया है। इसी प्रकार आगम-परम्परा इन्द्रिय-प्रत्यक्ष को परोक्ष की कोटि में मानती है, किन्तु न्यायवैशेषिक आदि अन्य भारतीयदर्शन इसे प्रत्यक्ष मानते हैं। भाष्यकार ने इन्द्रिय प्रत्यक्ष को संव्यवहार प्रत्यक्ष नाम देकर एक मध्यम मार्ग का अनुसरण किया, जिससे दोनों परम्पराओं का समन्वय हुआ। विशेषावश्यकभाष्य में अन्य विषयों के साथ ज्ञानवाद का विस्तार से वर्णन किया गया है। पांच ज्ञान के सम्बन्ध में विशेषावश्यकभाष्य में जो कुछ कहा गया है, वही अन्यत्र उपलब्ध होता है और जो कुछ नहीं कहा गया, वह अन्यत्र भी प्राप्त नहीं होता है। जिनभद्रगणि के बाद वाले सभी आचार्यों ने स्व-स्व ग्रंथों में ज्ञानवाद के वर्णन में और ज्ञानवाद की व्याख्या करने में विशेषावश्यकभाष्य को ही आधार बनाया है। इसमें ज्ञानवाद का प्रतिपादन इतने विस्तृत और विपुल रूप में हुआ है कि इसे पढ़कर ज्ञानवाद के सम्बन्ध में अन्य किसी ग्रन्थ को पढ़ने की आवश्यकता ही नहीं रहती है। अत: आचार्य जिनभद्र ने विशेषावश्यक भाष्य लिखकर जैनागमों के मंतव्यों को तर्क की कसौटी पर कसा है और इस तरह इस काल के तार्किकों की जिज्ञासा को शांत किया है। जिस प्रकार वेद-वाक्यों के तात्पर्य के अनुसंधान के लिए मीमांसा-दर्शन की रचना हुई, उसी प्रकार जैनागमों के तात्पर्य को प्रकट करने के लिए जैन-मीमांसा के रूप में आचार्य जिनभद्र ने विशेषावश्यक की रचना की है।
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण की प्रबल तार्किक शक्ति, अभिव्यक्तिकुशलता, प्रतिपादन की पटुता तथा विवेचन की विशिष्टता को निहार कर कौन मेधावी मुग्ध नहीं होगा? भाष्य साहित्य में विशेषावश्यकभाष्य का अनूठा स्थान है।
विशेषावश्यक भाष्य का मलधारी की टीका सहित गुजराती अनुवाद (शाह चुन्नीलाल हुकुमचन्द कृत) आगमोदय समिति, बम्बई द्वारा दो भागों में 1924-1927 ई. में तथा पुनः इसी का प्रकाशन ई. 1996 में भद्रंकर प्रकाशन, 49/1, महालक्ष्मी सोसाइटी, शाही बाग अमदाबाद से किया गया है।