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23 चौथे यह बात विचारणीय है कि गर्भ-शोधनादि किसी और का किया जाय और भगवान् का जन्म किसी और के गर्भ से होवे ।
पांचवें-कुबेर-द्वारा रत्न-सुवर्ण की दृष्टि प्रारम्भ में ८ मास २२ दिन तक किसी और के घर पर हो, पीछे ६ मास और ८ दिन किसी और के यहां हो, तथा छप्पन कुमारिका देवियां भी इसी प्रकार प्रारम्भ में किसी और की सेवा करें और पीछे किसी और की ।
इन सभी बातों से भी अधिक अनुचित बात तो यह है कि भले ही ब्राह्मण के याचक कुल से गर्भापहरण करके क्षत्रियाणी के गर्भ में भ. महावीर को रख दिया गया हो, पर वस्तुतः उनके शरीर का निर्माण तो ब्राह्मण-ब्राह्मणी के रज और वीर्य से ही प्रारम्भ हुआ कहलायगा । यह बात तो तीर्थंकर जैसे महापुरुष के लिए अत्यन्त ही अपमानजनक है ।
इस सन्दर्भ में एक बात खास तौर से विचारणीय है कि जब तीर्थङ्करों के गर्भादि पांचों ही कल्याणकों में देवदेवेन्द्रादिकों के आसन कम्पायमान होते हैं और दि. श्वे. दोनों ही परम्पराओं के अनुसार वे अपना-अपना नियोग पूरा करने आते हैं, तब दि. परम्परा में एक स्वरूप से स्वीकृत कुमारिका देवियों के गर्भावतरण से पूर्व ही आने के नियोग का श्वे. परम्परा में क्यों उल्लेख नहीं मिलता है ? यदि श्वे. परम्परा की ओर से कहा जाय कि उन कुमारिका देवियों का कार्य जन्मकालीन क्रियाओं को करना मात्र है, तो यह उत्तर कोई महत्त्व नहीं रखता, क्योंकि भगवान् के जन्म होने से पूर्व अर्थात् गर्भकाल में आकर माता की नौ मास तक सेवा करना और उनके चारों ओर के वातावरण को आनन्दमय बनाना अधिक महत्त्व रखता है और यही कारण है कि दि. परम्परा में उन देवियों का कार्य गर्भागम के पूर्व से लेकर
होने तक बतलाया गया है । इस विषय में गहराई से विचार करने पर यही प्रतीत होता है कि यतः श्वे. परम्परा में जब भगवान् महावीर का पहिले देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ में आने और पीछे गर्भापहरण करा के त्रिशला देवी के गर्भ में पहुँचाने की मान्यता स्वीकार कर ली गई, तो उससे कुमारिका देवियों के गर्भागम-समय में आने की बात असंगत हो जाती है कि पहिले वे देवानन्दा की सेवा-टहल करें और पीछे त्रिशला देवी की सेवा को जावें । अतः यही उचित समझा गया कि उन कुमारिका देवियों के गर्भ-कल्याणक के समय आने का उल्लेख ही न किया जाय । जिससे कि उक्त प्रकार की कोई विसंगति नहीं रहने पावे ।
ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय ब्राह्मणों का प्रभाव बहुत अधिक था और जैनों के साथ उनका भंयकर संघर्ष चल रहा था । अतएव ब्राह्मणों को नीचा दिखाने के लिए यह गर्भापहरण की कथा कल्पित की गई है । यद्यपि आज का शल्य-चिकित्सा विज्ञान गर्भपरिवर्तन के कार्य प्रत्यक्ष करता हुआ दिखाई दे रहा है, तथापि तीर्थंकर जैसे महापुरुष का किसी अन्य स्त्री के गर्भ में आना और किसी अन्य स्त्री के उदर से जन्म लेना एक अपमान-जनक एवं अशोभनीय ही है ।
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