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जो धर्म समस्त जनता का हितकारी है और जो बाहिरी आडम्बर से रहित आन्तरिक वस्तु है, अर्थात् जो अपने मन को मदमत्सरादि दुर्भावों से जितना अधिक दूर रखेगा, वह धर्म के उतने ही समीप पहुँचेगा, ऐसे पवित्र धर्म को भी लोगों ने अनेक प्रकार के बाहिरी रूप प्रदान किये, जिनके चक्र में पड़कर सत्पुरुषों का मन भी नाना प्रकार के विकल्पों से संलिप्त रहने लगा ॥२१॥
बिम्बार्चनञ्च गृहिणोऽपि निषेधयन्ति केचित्परे तु यतयेऽपि विशेषयन्ति । तस्मै सदन्दुवसनाद्यपि केवनाहु र्नान्योऽभिषेचनविधावपि लब्धबाहुः ॥२२॥
कितने ही लोग गृहस्थों के लिए भी प्रतिमा-पूजन का निषेध करते है और कितने ही लोग मुनियों के लिए भी उसकी आवश्यकता बतलाते हैं। कितने ही लोग वीतराग परमात्मा की मूत्ति को भी वस्त्राभूषणादि पहिराना आवश्यक मानते हैं, तो कितने ही लोग मूर्ति का अभिषेक आदि करना अनावश्यक बतला कर उनका निषेध करते हैं ॥२२॥
कश्चित्त्वसिद्धमपि पत्रफलाद्यचित्तं संसिद्धमालुकमलादि पुनः सचित्तम् । निर्देष्टुमुद्यतमना न मनागिदानीं सङ्कोचमञ्चति किलात्ममताभिमानी ॥२३॥
उस पवित्र जैन धर्म को मानने वालों की आज यह दशा है कि कोई तो अग्नि से सीझे बिना ही पत्र - फल आदि को अंचित्त मानता है और कोई भली-भांति अग्नि से पकाये गये आलु आदि को भी सचित्त मानता है । इस प्रकार लोग अपने-अपने मत के अभिमानी बनकर और अन्यथा प्ररूपण करने के लिए उद्यत चित्त होकर आज कुछ भी सङ्कोच नहीं करते हैं ||२३||
कूपादिसंखननमाह च कोऽपि पापं लग्नस्य वाश्रयभुजः शमनेऽपि शापम् । इत्यादिभूरिजनमानसदुः स्थितत्वा त्संकल्पयन्निह जनो यमुपैति तत्त्वात् ॥२४॥
कितने ही जैन लोग कूप - वावड़ी आदि के खुदवाने को पाप कहते हैं और किसी स्थान पर लगी हुई आग के बुझाने में भी पाप बतलाते हैं । इत्यादि रूप से नाना प्रकार की मनमानी कल्पनाएं करके आज का यह मानव तत्त्व का अन्यथा प्रतिपादन कर रहा है ||२४||
भावार्थ जनता को पीने का पानी सुलभ करने के लिए कुंआ बावड़ी आदि का खुदवाना पुण्यकार्य है । पर कितने ही जैनी उसे आरम्भ समारम्भ का कार्य बताकर पाप-कार्य बतलाते हैं । इसी प्रकार किसी स्थान पर लगी आग को उसमें घिरे हुए प्राणियों की रक्षार्थ बुझाना पुण्य कार्य है । परन्तु वे लोग उसमें जलकायिक तथा अग्नि कायिक जीवों की विराधना बतलाकर उसे पाप-कार्य कहते हैं। उन लोगों को ज्ञात होना चाहिए कि जब तक श्रावक आरम्भ का त्यागी अष्टम प्रतिमाधारी नहीं बन जाता है, तब तक उसके लिये उक्त कार्य विधेय है और वह उन्हें कर सकता है । अन्यथा सभी लोकोपकारी कार्यो का करना असम्भव हो जायगा । हां आरम्भ-त्यागी हो जाने पर गृहस्थ को उनके करने का जैनआगम में निषेध किया गया है ।
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