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ररररररrrrrrr पूर्वं विनिर्माय विधुं विशेष-यत्नाद्विधिस्तन्मुखमेवमेषः । कुर्वंस्तदुल्लेखकरी चकार स तत्र लेखामिति तामुदारः ॥२९॥
विधाता ने पहले चन्द्र को बनाकर पीछे बड़े प्रयत्न से - सावधानी के साथ इस रानी के मुख को बनाया । इसीलिए मानों उदार विधाता ने चन्द्र-बिम्ब की व्यर्थता प्रकट करने के लिए उस पर रेखा खींच दी है जिसे लोग कलङ्क कहते हैं ॥२९।।
अधीतिबोधाऽऽचरणप्रचारैश्चतुर्दशत्वं गमिताऽत्युदारैः । विद्या चतुःषष्ठिरतः स्वभावादस्याश्च जाताः सकलाः कला वा ॥३०॥
इस रानी की विद्या विशद रूप अधीति (अध्ययन), बोध (ज्ञान-प्राप्ति), आचरण (तदनुकूल प्रवृत्ति) और प्रचार के द्वारा चतुर्दशत्व को प्राप्त हुई । पर एक वस्तु को चार के द्वारा गुणित करने पर भी चतुर्दशत्व अर्थात् चौदह की संख्या प्राप्त नहीं हो सकती है, यह विरोध है । उसका परिहार यह किया है कि उसकी एक विद्या ने ही अधीति आदि चार दशाएं प्राप्त की । पुन: वही एक विद्या चौदह प्रसिद्ध विद्याओं में परिणत हो गई । एवं उसकी सम्पूर्ण कलाएं स्वतः स्वभाव से चौसठ हो गईं ॥३०॥
भावार्थ - एक वस्तु की १६ कलाएं मानी जाती हैं, अतएव चार दशाओं की (१६x४-६४) चौंसठ कलाएं स्वतः ही हो जाती हैं । वह रानी स्त्रियों की उन चौंसठ कलाओं में पारंगत थी, ऐसा अभिप्राय उक्त श्लोक से व्यक्त किया गया है ।
यासामरूपस्थितिमात्मनाऽऽह स्वीयाधरे विद्रुमतामुवाह ।
अनूपमत्वस्य तनौ तु सत्त्वं साधारणायान्वभवन्महत्त्वम् ॥३१॥
यह प्रियकारिणी रानी अपनी साम (शान्त) चेष्टा से तो मरु (मारवाड़) देश की उपस्थिति को प्रकट करती थी । क्योंकि इसके अधर पर विद्रुमता (वृक्ष-रहितता) और मूंगा के समान लालिमा थी। तथा इसके शरीर में अनूप-देशता की भी सत्ता थी । अर्थात् अत्यन्त सुन्दरी होने से उसकी उपमा नहीं थी, अतः उसमें अनुपमता थी । एवं वह साधारण देश के लिए महत्त्व को स्वीकार करती थी, अर्थात् उसकी धारणा-शक्ति महान् अपूर्व थी ॥३१॥
भावार्थ - देश तीन प्रकार के होते हैं - एक वे, जिनमें जल और वृक्षों की बहुलता होती है, उन्हें अनूपदेश कहते हैं । दूसरे वे, जहां पर जल और वृक्ष इन दोनों की ही कमी होती है, उन्हें मरुदेश कहते हैं । जहां पर जल और वृक्ष ये दोनों ही साधारणतः हीनाधिक रूप में पाये जाते हैं उन्हें साधारण देश कहते हैं । विभिन्न प्रकार के इन तीनों ही देशों की उपस्थिति का चित्रण कवि ने रानी के एक ही शरीर में कर दिखाया है ।
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