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ररररररररररररररररररररर ___ इस समय चन्द्रमा भी अपनी प्राणप्रिया रात्रि में ऐसी अनन्यजन्य कान्ति को धारण कर रहा है, जैसी कि उसने शेष पांचों ऋतुओं में कभी नहीं धारण की थी । इस समय कौन आलसी पुरुष अपनी प्राण-प्यारी के प्रति उदासीन रहेगा ? इस प्रकार शरद्-ऋतु का यह समय-विभाग एकान्त रूप से लोगों में अपनी स्त्रियों के प्रति अनुराग बढ़ाने वाला हो रहा है ॥१९।।
अपि मृदुभावाधिष्ठ शरीरः सिद्धिश्रियमनुसतुं वीरः । कार्तिककृष्णाब्धीन्दुनुमायास्तिथेर्निशायां विजयनमथाऽयात् ॥२०॥
ऐसी शरद-ऋतु में अति मृदुल शरीर को धारण करने वाले भगवान् महावीर भी मुक्ति-लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिए कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में एकान्त स्थान को प्राप्त हुए ॥२०॥
पावानगरोपवने मुक्तिश्रियमनुगतो महावीरः । तस्या वर्मानुसरन् गतोऽभवत् सर्वथा धीरः ॥२१॥
उसी रात्रि के अन्तिम समय में वे धीर वीर महावीर पावानगर के उपवन में मुक्ति-लक्ष्मी के अनुगामी बने और उसके मार्ग का अनुसरण करते हुए वे सदा के लिए चले गये ॥२१॥ प्रापाथ
ताद्दगनुबन्धनिबद्धभावं प्रत्यागतो न भगवान् पुनरद्य यावत् । तस्या मुखाम्बुरुहि
सङ्गतदृष्टि रस्मात् तस्यैव भाक्तिक जनानपि दृष्ट मस्मान् ॥२२॥
इसके पश्चात् भगवान महावीर उस सिद्धि-वधू के साथ ऐसे अनुराग भाव से निबद्ध हुए कि वहां से वे आज तक भी लौट कर वापिस नहीं आये । वे उस सिद्दि:वधू के मुख-कमल पर ऐसे आसक्त दृष्टि हुए कि हम भक्त जनों को देखने की भी उन्हें याद नहीं रही ॥२२॥ देवैनरैरपि
परस्परतः
__ समेत र्दीपावली च परितः समपादि एतैः । तद्वर्त्म शोधितुमिवाथ तकै: स हूतः नव्यां न मोक्तु मशकत्सहसात्र पूतः ॥२३॥ भगवान् महावीर के मुक्ति-वधू के पास चले जाने पर उनका मार्ग शोधन करने के लिए ही मानों देवों और मनुष्यों ने परस्पर मिलकर चारों ओर दीपावली प्रज्वलित की, उन्हें ढूंढा और पुकारा भी । किन्तु वे पवित्र भगवान् उस नव्य दिव्य मुक्ति-वधू को सहसा छोड़ने के लिए समर्थ न हो सके ॥२३॥
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