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ते शारदा गन्धवहाः सुवाहा वहन्ति सप्तच्छदगन्धवाहाः । सन्मैथुनम्लानवदूविहारातिमन्थरामोदमयाधिकाराः ॥१४॥
वे शरद्-कालीन हवाएं, जो सप्तपर्ण वृक्षों की सुगन्ध को लेकर बहा करती हैं, वे इस समय मैथुन-प्रसंग से शिथिल हुई बधुओं के समीप विहार करने से अति मन्थर (मन्द) गति वाली और आमोदयुक्त अधिकार वाली होकर काम-वासना को बढ़ाने में और भी अधिक सहायक हो जाती है ॥१४॥
मही-महाङ्के मधुबिन्दुवृन्दैः सुपिच्छिले पान्थ इतोऽपि विष्वक् । सरोजिनीं चुम्बति चञ्चरीके निक्षिप्तदृष्टिः स्खलतीति शश्वत् ॥१५॥ फूलों के मधु-बिन्दुओं के समूह से अति पिच्छिल (कीचड़युक्त) हुए इस भूमण्डल पर चलने वाला पथिक जब कमलिनी को चूमते हुए भ्रमर अपनी दृष्टि डालता है, तब अपनी प्राणप्रिया की याद कर पग-पग पर स्खलित होने लगता है ॥१५॥
तल्लीनरोलम्बसमाजराजि-व्याजेन जाने शरदाऽङ्कितानि । नामाक्षराणीव मनोभवस्यातिपेशले पद्मदलेऽर्पितानि ॥१६॥
अति सुन्दर कमल-दल पर आकर निश्चल रूप से बैठे हुए भ्रमर-पंक्ति के बहाने से मानों शरद् ऋतु ने कामदेव की प्रशस्ति के अक्षर ही लिख दिये है, ऐसा प्रतीत होता है ॥१६॥
रमा समासाद्य भुजेन सख्याः स्कन्धं तदन्यार्धशयात्तमध्या । पन्थानमीषन्मरुता धुतान्तःकुचाञ्चला कस्य कृतेऽक्षिकृद्या ॥१७॥
इस शरद् ऋतु में मन्द-मन्द चलती हुई हवा से जिसके स्तनों का आंचल कम्पित हो रहा है, ऐसी कोई प्रोषित-भर्तका नारी एक हाथ अपनी सखी के कन्धे पर रख कर और दूसरा हाथ अपनी कमर पर रख कर खड़ी होकर किस भाग्यवान् के लिए प्रतीक्षा करती हुई मार्ग को देख रही है ॥१७॥
स्वयं शरच्चामरपुष्पिणीयं छत्रं पुनः सप्तपलाशकीयम् । हंसध्वनिर्बन्धनतो विमुक्तः स्मरस्तु साम्राज्यपदे नियुक्तः ॥१८॥
इस शरद्-ऋतु में ऐसा प्रतीत होताहै, मानों कामदेव साम्राज्य पद पर नियुक्त हुआ है, जिसके चंवर तो फूले हुए कांस हैं और सप्तपर्ण के पत्र ही मानों छत्र हैं । तथा राज्याभिषेक की खुशी में कारागार के बन्धन से विमुख हंसो की ध्वनि ही गाई जाने वाली विरुदावली है ॥१८॥
अनन्यजन्यां रुचिमाप चन्द्र आत्मप्रियायामिति कोऽस्त्वमन्द्रः । इत्येवमेकान्ततयाऽनुराग-सम्वर्धनोऽभूच्छरदो विभागः ॥१९॥
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