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ररररररररररररररररर
र रररररररररररररररर संशोधितं
निजचेष्टि तमित्यनेन तेषां समं न समभूमिलनं निरेनः ॥४॥
जो मुनिजन भद्रबाहु श्रुतकेवली के शासन के स्पष्ट जानकार थे, उन्होंने स्थूलभद्र के उक्त संग्रह को उस समय सदोष कहा और उसे संशोधन करने के लिए निवेदन किया । किन्तु उन्होंने अपनी कृति का संशोधन नहीं किया और इसी कारण उनका परस्पर निर्दोष सम्मिलन नहीं हो सका ॥४॥ यत्सम्प्रदाय
उदितो
वसनग्रहेण सार्धं पुरोपवनादिविधी रयेण । यो वीरभावमतिवर्त्य
सुकोमलत्व शिक्षा प्रदातुमधितिष्ठति . सर्वकृ त्वः ॥५॥
इन स्थूलभद्र के उपदेश एवं आदेश से जो सम्प्रदाय प्रकट हुआ, वह वीर-भाव (सिंह वृत्ति) को गौण करके वन-वास छोड़कर पुर-नगरादि में रहने लगा और कठिन तपश्चरण एवं नग्ननता के स्थान पर वस्त्र-धारणादि सुकुमारता की शिक्षा देने के लिए वेग से सर्व ओर फैल गया ॥५॥
देवर्द्धिराप पुनरस्य हि सम्प्रदायी यो विक्र मस्य शरवर्षशतोत्तरायी । सोऽङ्गाख्यया
प्रकृ तशास्त्रविधिस्तदीयाऽऽ मायं च पुष्टि मनयज्जगतामितीयान् ॥६॥ पुनः इन्हीं स्थूलभद्र की सम्प्रदाय वाले देवर्द्धि गणी जो विक्रम से पांच सौ वर्ष पीछे हुए । उन्होंन आचाराङ्ग आदि अंगनाम से प्रसिद्ध आगमों की रचना कर स्थूलभद्र के आम्नाय की पुष्टि की, जिससे कि उनका सम्प्रदाय जगत् में इतना अधिक फैल गया ॥६॥ .
काँश्चित् पटेन सहितान् समुदीक्ष्य चान्या नाहु दिगम्बरतया जगतोऽपि मान्याः । स्वाभाविक
सहजवेषमुपाददानान् वेदेऽपि कीर्त्तितगुणान्मनुजास्तथा तान् ॥७ ॥
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