________________
स्रररररररररररररररर|12जर
र रररर भवन्ति ताः सम्प्रति नाट्यशाला नृत्यन्ति यासूत्तमदेवबालाः । त्रिलोकनाथस्य यशोवितानं सूद्घोषयन्त्यः प्रतिवेशदानम् ॥१०॥
इसके पश्चात् नाट्यशालाएं थीं, जिनमें देव-बालाएं त्रिलोकीनाथ श्री वीर प्रभु के यशोवितान की सर्व ओर घोषणा करती हुई नाच रहीं थीं ॥१०॥
सप्तच्छ दाऽऽम्रोरुक चम्पकोपपदैर्वनैर्यत्र कृ तोपरोपः ।
मनोहरोऽतः समभूत्प्रदेशस्तत्तत्कचैत्यद्रुमयुक्तलेंशः ॥११॥ इसके अनन्तर सप्तपर्ण, आम्र, अशोक और चम्पक जाति के वृक्षों से युक्त चारों दिशाओं में चार वन थे । जिनमें उन-उन नाम वाले चैत्य वृक्षों से संयुक्त मनोहर प्रदेश सुशोभित हो रहे थे ॥११॥
श्रीवीरदेवस्य यशोभिरामं वनं तपो राजतमाश्रयामः । यस्य प्रतिद्वार मुशन्ति सेवामथाऽर्ह तो भावननामदेवाः ॥१२॥ पुनः उस समवशरण में हम श्री वीर भगवान् के समान अभिराम, राजत (चांदी निर्मित) कोट का आश्रय करते हैं, जिसके कि प्रत्येक द्वार पर भवनवासी देव अरहंत भगवान् की सेवा कर रहे थे ॥१२॥
विनापि वाञ्छां जगतोऽखिलस्य सुखस्य हेतुं गदतो जिनस्य ।
वैयर्थ्यमावेदयितुं स्वमेष समीपमेति स्म सुरद्रुदेशः ॥१३॥ तत्पश्चात् कल्पवृक्षों का वन था, जो मानों लोगो से कह रहा था कि हम तो वांछा करने पर ही लोगों को वांछित वस्तु देते हैं, किन्तु ये भगवान तो बिना ही वांछा के सर्व जगत के सख के कारण को कह रहे हैं, अतएव अब हमारा होना व्यर्थ है, इस प्रकार अपनी व्यर्थता को स्वयं प्रकट करता हुआ ही मानों यह कल्प वृक्षों का वन भगवान् के समीप में आया है ॥१३॥
अस्मिन् प्रदेशेऽग्त्यखिलासु दिक्षु सिद्धार्थनामावनिरुट् दिदक्षुः । भव्योऽत्र सिद्धप्रतिमामुपेतः स्फूर्तिं नयत्यादरतः स्वचेतः ॥१४॥ इसी स्थान पर चारों दिशाओं में सिद्धार्थ नामक वृक्ष हैं, जो कि सिद्ध-प्रतिमाओं से युक्त हैं और जिन्हें देखने के लिए भव्य जीव आदर भाव से यहां आकर अपने चित्त में स्फूर्ति को प्राप्त करते हैं ॥१४॥
ततोऽपि वप्रः स्फटिकस्य शेष इवाऽऽबभौ कुण्डलितप्रदेशः । संसेवमानो भवसिन्धुसेतुं नभोगतत्बप्रतिपत्तये तु ॥१५॥ तदनन्तर स्फटिक मणि का तीसरा कोट है, जो ऐसा शोभित हो रहा है कि मानों शेषनाग ही अपने सर्पपना से रहित होने के लिए अथवा भोगों से विरक्ति प्राप्त करने के लिए भव-सागर के सेतु (पुल) समान इन वीर भगवान् की सेवा करता हुआ कुण्डलाकार होकर अवस्थित है ॥१५॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org