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पूर्ण या सत्य ज्ञान के बिना सद्-वाक्य संभव नहीं हैं और निराशा, निरीहता एवं वीतरागता को प्राप्त पुरुष के ही पूर्ण सत्य ज्ञान हो सकता है, अन्य के नहीं । इसलिए जगत् से परवर्ती अर्थात् जगज्जंजालों से रहित उस विमोही महात्मा के लिए हमारा नमस्कार है ॥२४॥
यज्ज्ञानमस्तसकलप्रतिबन्धभावाद् व्याप्नोति
विश्वगपि विश्वभवांश्च
भावान् भद्रं तनोतु भगवान् जगते जिनोऽसावङ्के ऽस्य न स्मयरयाभिनयादिदोषाः ॥२५॥ जिनका ज्ञान समस्त प्रतिबन्धक कारणों के दूर हो जाने से सर्व विश्व भर के पदार्थों को व्याप्त कर रहा है, अर्थात् जान रहा है और जिनके भीतर मद, मत्सर, आवेग, राग, द्वेषादि दोष नहीं है, ऐसे वे जिन भगवान् समस्त संसार का कल्याण करें ॥२५॥
श्रीमान् श्रेष्ठि चतुर्भुजः स सुषुवे भूरामले त्याह्वयं वाणीभूषणवर्णिनं घृतवरी देवी च यं धीचयम् । सर्वज्ञत्वमुताह वीरभगवान् यत्प्राणिनां भूषणं सर्गे खाक्षिमिते तदीयगदिते व्यक्तं किलादूषणम् ॥२०॥ इस प्रकार श्रीमान् सेठ चतुर्भुज और घृतवरी देवी से उत्पन्न हुए, वाणी-भूषण, बाल ब्रह्मचारी,पं. भूरामल वर्तमान मुनि ज्ञानसागर-विरचित इस वीरोदय काव्य में भगवान् महावीर की सर्वज्ञता का प्रतिपादन करने वाला बीसवां सर्ग समाप्त हुआ ॥२०॥
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