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भी ठीक नहीं है, कारण कि उल्लू आदि रात्रिचर जीवों को आलोक आदि के बिना भी ज्ञान होता हुआ देखा जाता है । इसलिए आलोक आदि की अपेक्षा से ज्ञान होता है, यह कथन दूषित सिद्ध होता है । यदि कहा जाय कि आसन्नता (निकटता) की अपेक्षा पदार्थों का ज्ञान होता है, सो यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि दूरवर्ती भी पदार्थों का ज्ञान गिद्ध आदि पक्षियों को होता हुआ देखा जाता है। जब इन उल्लू-गिद्ध आदि को भी प्रकाश और सामीप्य के बिना अन्धकार - स्थित एवं दूर-वर्ती पदार्थों का ज्ञान होना संभव है, तब हे भव्य प्राणी, सर्व-दर्शी ईश्वर को सब का प्रत्यक्ष ज्ञान होना क्यों न संभव माना जाय ॥२०॥
आत्मानमक्षं प्रति वर्तते यत् प्रत्यक्षमित्याह पुरुः पुरेयत् । यदिन्द्रियाद्यैरुपजायमानं
परोक्षमर्थाद्भवतीह
मानम् ॥ २१ ॥
विश्वदृष्वा सर्वज्ञ का ज्ञान प्रत्यक्ष होकर भी इन्द्रिय, आलोक आदि की सहायता के बिना ही उत्पन्न होता है । भगवान् पुरु (ऋषभ देव ने 'अक्षं आत्मानं प्रति यद् वर्तते, तत्प्रत्यक्ष' ऐसा कहा है । अर्थात् जो ज्ञान केवल आत्मा की सहायता से उत्पन्न हो, वह प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है और जो ज्ञान इन्द्रिय, आलोक आदि की सहायता से उत्पन्न होता है, वह ज्ञान जैनागम में वस्तुतः परोक्ष ही माना गया है
॥२१॥
सर्वज्ञतामाप च वर्धमानः न श्राद्धिकोऽयं विधिरेकतानः । ताथागतोक्तेऽध्ययनेऽपि तस्य प्रशस्तिभावाच्छृणु भो प्रशस्य ॥२२॥
श्री वर्धमान स्वामी ने सर्वज्ञता को प्राप्त किया था, यह बात केवल श्रद्धा का ही विषय नहीं है, अपितु इतिहास से भी सिद्ध है। देखो - ताथागत (बौद्ध) प्रतिपादित मज्झिमनिकाय आदि ग्रन्थों में भी निग्गंथनाठपुत्त भगवान् महावीर को दिव्य ज्ञानी और जन्मन्तरों का वेत्ता कहा गया है । अतएव हे भव्योत्तम, बौद्ध ग्रन्थों की उक्त प्रशस्ति से तुम्हें भी भगवान् महावीर को सर्वज्ञ मानना चाहिए ||२२||
वृथाऽभिमानं व्रजतो विरुद्धं प्रगच्छतोऽस्मादपि हे प्रबुद्ध । प्रवृत्तिरेतत्पथतः समस्ति ततोऽस्य सत्यानुगता प्रशस्तिः ॥ २३॥
इसलिए हे प्रबुद्ध ( जागरूक) भव्य, व्यर्थ के अभिमान को प्राप्त होकर भगवान् महावीर के द्वारा प्रतिपादित मार्ग से विरुद्ध चलना ठीक नहीं है । क्योंकि उनके द्वारा प्रतिपादित अनेकान्तवाद के मार्ग से ही लौकिक, दार्शनिक एवं आध्यात्मिकं जगत की प्रवृत्ति समीचीन रूप से चल सकती है, अन्यथा नहीं । इसलिए भगवान् महावीर के सर्वज्ञता सम्बन्धी प्रशस्ति सत्यानुगत ( सच्ची ) है, यह अनायास ही स्वतः सिद्ध हो जाता है ||२३||
न
ज्ञानं
नैराश्यमञ्चतः I जगतामतिवर्तिने
ज्ञानाद्विना तस्मान्नमो
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सद्वाक्यं नमोहाय
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॥२४॥
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