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श्राद्धेऽपि
यत्र
1
ख्यातस्तत्सम्प्रदायिनः सन्मतेरयम्
वदेयुर्मातरं
धेनुं
प्रभावः
॥५७॥
जिन वैदिक सम्प्रदाय वालों के यहां श्राद्ध में भी गोमांस का विधान था, वे लोग आज गौ को माता कहते हैं और उसका वध नहीं करते, यह प्रभाव वीर शासन का ही है ॥५७॥
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गोमांसः
भावार्थ वैदिक धर्म में ऐसा विधान था कि " महोजं वा महोक्षं वा श्रोत्रियाय प्रकल्पयेत्" अर्थात् 44 श्राद्ध के समय महान् अश्व को अथवा महान् बैल को श्रोत्रिय ब्राह्मण के लिए मारे और उसका मांस उसे खिलावें”- उस समय सर्वत्र प्रचलित इस विधान का आज जो अभाव दृष्टिगोचर होता है, वह वीर भगवान् के 'अहिंसा परमो धर्मः के सिंहनाद का ही प्रभाव है ।
यद्वा
सर्वेऽपि
1
राजानो वीरमार्गानुयायिनः रक्षायां यतन्ते सततं तके
यतः प्रजाया
॥५८॥
अथवा संसार के सभी राजा लोग वीर मार्ग के अनुयायी हैं, क्योंकि वे लोग प्रजा की रक्षा करने में निरन्तर प्रयत्नशील रहते हैं ॥५८॥
अन्तर्नीत्याऽखिलं
विश्वं
1
वीरवर्त्माभिधावति हिंसकादपि हिंसक :
दय
स्वकुटुम्बादौ
॥५९॥
अन्तरंग नीति से यदि देखा जाय, तो यह समस्त विश्व ही वीर भगवान् के द्वारा बतलाये हुए अहिंसा मार्ग पर चल रहा है, क्योंकि हिंसक से भी हिंसक मनुष्य या पशु भी अपने कुटुम्ब आदि पर दया करता ही है, उनकी हिंसा नहीं करता ॥५९॥
ततः
पुनर्यो अहिं सामधिकं
मात्रायामुपढौक ते वीरमनुगच्छति
तावत्
स
॥६०॥
इसलिए जो जीव जितनी भी मात्रा में अहिंसा धर्म को धारण करता है, वह उतनी ही मात्रा में भगवान् महावीर के मार्ग पर चलता है ॥६०॥
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यावत्या
अभूत्पुनः सन्मतिसम्प्रदायेऽपि तत्प्रभावः सहयोगिताये । यतो मृतश्राद्धमवश्यकर्म हीत्यादि धीरञ्चति जैनमर्म ॥ ६१ ॥
1
समय-परिवर्तन के साथ सन्मति वीर भगवान् के सम्प्रदाय वालों पर भी अन्य सहवर्ती सम्प्रदाय वालों का प्रभाव पड़ा कि जैन लोग भी मरे हुए व्यक्ति का श्राद्ध करना आवश्यक कर्त्तव्य मानने लगे, तथा इसी प्रकार की अन्य लौकिक क्रियाओं को करने लगे, जो कि जैन धर्म के मर्म पर चोट पहुँचाती हैं ॥६१ ॥
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