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न शाकस्य पाके पलस्येव पूतिर्न च क्लेदभावो जलेनात्तसूतिः । इति स्पष्टभेदः पुनश्चापि खेदः दुरीहावतो जातुचिनास्ति वेदः ॥२५॥
और भी देखो-शाक के पकाने पर मांस के समान दुर्गन्ध नहीं आती तथा शाक-पत्रादि मांस के समान जल से सड़ते भी नहीं है, क्योंकि उनकी उत्पत्ति जल से है । इस प्रकार शाक-पत्रादि और मांस इन दोनों में स्पष्ट भेद है, फिर भी यह महान् खेद है कि मांस खाने के दुराग्रह वाले को इसका कदाचित् भी विवेक नहीं है ॥२५॥
तदेवेन्द्रियाधीनवृत्तित्वमस्ति यदज्ञानतोऽतर्व्यवस्तु प्रशस्तिः । विपत्तिं पतङ्गादिवत्सम्प्रयाति स पश्चात्तपन् सर्ववित्तुल्यजातिः ॥२६॥ इस प्रकार से मांस और शाक-पत्रादि के भेद को प्रत्यक्ष से देखता और जानता हुआ भी मांस खाना नहीं छोड़ता है, यही उसकी इन्द्रियाधीन प्रवृत्ति है और उसके वश होकर अज्ञान से कुतर्क करके मांस जैसी निंद्य वस्तु को उत्तम बताता है । जिस प्रकार पंतगे आदि जन्तु इन्द्रियों के विषयों के अधीन होकर अग्नि आदि में गिरकर विनाश को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार सर्ववेत्ता परमात्मा के समान जातिवाला यह मनुष्य भी पश्चात्ताप का पात्र बने, यह महान् दुःख की बात है ॥२६॥
हिंसायाः समुपेत्य शासनविधिं ये चेन्द्रियैराहताः । पश्यास्मिञ्जगति प्रयान्ति विवशा नो कस्य ते दासताम् ॥ यश्चाज्ञामधिगम्य पावनमना धीराड हिंसाश्रियः जित्वाऽक्षाणि समाबसेदिह जयजेता स आत्मप्रियः ॥२७॥
देखो, इस जगत् में जीव हिंसा के शासन-विधान को स्वीकार करके इन्द्रियों के विषयों से पीड़ित रहते हैं, वे परवश होकर किस किस मनुष्य की दासता को अङ्गीकार नहीं करते ? अर्थात् उन्हें सभी
की गुलामी करनी पड़ती है । किन्तु जो पवित्र मनवाले बुद्धिमान् मानव अहिंसा भगवती की आज्ञा को . प्राप्त होकर और इन्द्रियों के विषय को जीतकर संसार में रहते हैं, ये जगज्जेता और सर्वात्मप्रिय होते हैं ॥२७॥
स्वस्वान्तेन्द्रियनिग्रहै क विभवो यादृग्भवेच्छीर्यते स्तादृक सम्भवतादपि स्वमनसः सम्पत्तये भूपतेः । राज्ञः केवलमात्मनीनविषयादन्यत्र न स्याद् रसः योगीन्द्रस्य समन्ततोऽपि तु पुनर्भेदोऽयमेतादृशः ॥२८॥
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