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जो पत्र, फल आदिक अग्नि से पक जाते हैं, अथवा सूर्य की गर्मी, आदि से शुष्कता को प्राप्त हो जाते हैं, उन्हें ही श्री जिनेन्द्रदेव ने प्रासुक (निर्जीव ) कहा है । प्राणियों पर दया करने वाले संयमी जनों को ऐसी प्रासुक वनस्पति ही खाना चाहिए ||३३||
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वातं तथा तं सहजप्रयातं सचित्तमाहाखिलंवेदितातः । स्यात्स्पर्शनं हीन्द्रियमेतकेषु यत्प्रासुकत्वाय न चेतरेषु ॥३४॥
वायु (पवन) ही जिनका शरीर है, ऐसे जीवों को वायुकायिक कहते हैं । सहज स्वभाव से बहने वाली वायु को सर्वज्ञ देव ने सचित्त कहा है । इन सभी स्थावरकायिक जीवों के एक स्पर्शनेन्द्रिय ही होती है । ये सभी प्रयोग - विशेष से प्रासुक या अचित्त हो जाते हैं किन्तु इतर त्रस जीवों का शरीर कभी भी अचित्त नहीं होता है ||३४|
कृमिर्छुणोऽलिर्नर एवमादिरे कै क वृद्धेन्द्रिययुग न्यगादि । महात्मभिस्तत्तनुरत्र जातु के नाप्युपायेन विचिन्न भातु ॥३५॥
कृमि (लट) घुण, कीट, भ्रमर और मनुष्य आदि के एक-एक अधिक इन्द्रिय होती है । अर्थात् लट, शंख, केंचुआ आदि द्वीन्द्रिय जीवों के स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियां होती हैं । घुण, कीड़ीमकोड़ा आदि त्रीन्द्रिय जीवों के स्पर्शन, रसना और घ्राण ये तीन इन्द्रियां होती हैं । भ्रमर मक्षिका, पतंगा आदि चतुरिन्द्रिय जीवों के स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु ये चार इन्द्रियां होती हैं । मनुष्य, देव, नारकी और गाय, भैंस, घोड़ा आदि पंचेन्द्रिय जीवों के कर्ण सहित उक्त चारों इन्द्रियां होती हैं । इन द्वीन्द्रियादि जीवों का शरीर किसी भी उपाय से अचित्त नहीं होता, सदा सचित्त ही बना रहता है, ऐसा महर्षि जनों ने कहा है ॥३५॥
अचित्पुनः पञ्चविधत्वमेति रूपादिमान् पुद्गल एव चेति ।
भवेदणु - स्कन्धतया स एव नानेत्यपि प्राह विभुर्मुदे वः ॥३६॥
अचेतन द्रव्य पांच प्रकार का होता है- पुद्गल, धर्म अधर्म, आकाश और काल । इनमें पुद्गल द्रव्य ही रूपादिवाला है, अर्थात् पुद्गल में ही रूप, रस, गन्ध और स्पर्श पाया जाता है, अतः वह रूपी या मूर्त कहलाता है । शेष चार द्रव्यों में रूपादि गुण नहीं पाये जाते, अतः वे अरूपी या अमूर्त कहलाता हैं । पुद्गल के अणु और स्कन्ध रूप से दो भेद हैं । पुनः स्कन्ध के भी बादर, सूक्ष्म आदि की अपेक्षा नाना भेद जिन भगवान् ने कहे हैं । आप लोगों को प्रमोद वर्धक जितना कुछ दिखाई देता है, वह सब पुद्गल द्रव्य का ही वैभव है ||३६||
गतेर्निमित्तं स्वसु- पुद्गलेभ्यः धर्मं जगद् - व्यापिनमेतके भ्यः
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अधर्म मे तद्विपरीतकार्यं
जगाद
सम्वेदक रोऽर्ह दार्य :
॥३७॥
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