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न्याय शास्त्र का यह सिद्धान्त है कि जिसके अभाव में जो कार्य न हो, वह तत्कारणक माना जाता है। जैसे कुम्भकार आदि के बिना घड़ा उत्पन्न नहीं होता, तो वह उसका कारण या कर्ता कहा जाता है । इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि प्रत्येक कार्य अपने अपने अविनाभावी कारणों से उत्पन्न होता है । ऐसी स्थिति में हे अभिवादिन्, ईश्वरादि किसी अन्य कारण की कल्पना करने से क्या लाभ है ॥४४॥
__इस विषय का विस्तृत विवेचन प्रमेयकमलमार्तण्ड, आप्त-परीक्षा, अष्टसहस्री आदि न्याय के ग्रन्थों में किया गया है । अतः यहां पर अधिक कथन करने से विराम लेते हैं ।
श्रीमान् श्रेष्ठि चतुर्भुजः स सुषुवे भूरामलेत्याह्वयं वाणीभूषणवर्णिनं घृतवरी देवी च यं धीचयम् । सर्गेऽङ्के न्दुसमङ्किते तदुदितेऽनेकान्ततत्त्वस्थितिः
श्रीवीरप्रतिपादिता समभवत्तस्याः पुनीतान्वितिः ॥१९॥
इस प्रकार श्रीमान् सेठ चतुर्भुज और घृतवरी देवी से उत्पन्न हुए, वाणीभूषण, बाल-ब्रह्मचारी पं. भूरामल वर्तमान मुनि ज्ञानसागर-विरचित इस वीरोदय काव्य में वीर-भगवान् द्वारा प्रतिपादित अनेकान्तवाद और वस्तुतत्त्व की स्थिति का वर्णन करने वाला यह उन्नीसवां सर्ग समाप्त हुआ ॥१९॥
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