Book Title: Virodaya Mahakavya
Author(s): Bhuramal Shastri
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 287
________________ C. 194 संगालिते वारिणि जीवनन्तु तत्कायिकं किन्तु न तत्र जन्तुः । ततः समुष्णीकृतमेव वारि पिबत्यहो संयमिनामधारी ॥२९॥ सभी प्रकार के जल के भीतर जलकायिक जीव होते हैं, जल ही जिनका शरीर है उन्हें जलकायिक कहते हैं । वस्त्र से गालित (छाने हुए) जल में भी जलकायिक जीव रहते हैं । हां, छान लेने पर उसमें त्रस जीव नहीं रहते । इसलिए वस्त्र - गालित जल को अच्छी तरह उष्ण करके प्रासुक बना लेने पर संयमी नाम- धारी पुरुष उसे पीते हैं ॥२९॥ नान्यत्र सम्मिश्रणकृत्प्रशस्तिर्वह्निश्च सञ्जीवनभृत्समस्ति । भोज्यादिके ष्वात्तपदस्त्वजीवभावं भजेद्भो सुतपःपदी वः ॥३०॥ अग्नि ही जिनका शरीर है उन्हें अग्निकायिक जीव कहते हैं । जैसे काष्ठ, कोयला आदि के जलाने से उत्पन्न हुई सभी प्रकार की अग्नि, बिजली, दीपक की लौ आदि । किन्तु जो अग्नि भोज्य पदार्थों में प्रविष्ट हो चुकी है, वह सचित्त नहीं है, किन्तु अचित्त है । पर जो अनय पदार्थों में मिश्रण को नहीं प्राप्त हुई है, ऐसे धधकते अंगार आदि सचित्त ही हैं, ऐसा जान कर हे सुतपस्वी जनो, आप लोग अचित्त अग्नि का उपयोग करें ||३०|| प्रत्येक - साधारणभेदभिन्नं वनस्पतावेवमवेहि किन्न भो विज्ञ ! पिण्डं तनुमत्तनूनां चिदस्ति चेते सुतरामदूना ॥३१॥ वृक्ष, फल, फूल आदि में रहने वाले एकेन्द्रिय जीव वनस्पति कायिक कहलाते हैं । प्रत्येक और साधारण के भेद से वनस्पति कायिक जीव दो प्रकार के होते हैं । हे विज्ञ जनो, क्या तुम लोग वनस्पति के पिण्ड को सचेतन नहीं मानते हो ? अग्नि पक्व या शुष्क हुए बिना पत्र, पुष्प, फलादि सभी प्रकार की वनस्पति को सचित्त ही जानना चाहिए ||३१|| एकस्य देहस्य युगेक एव प्रत्येक माहेति जिनेशदेवः 1 यत्रैकदेहे बहवोऽङ्गिनः स्युः साधारणं तं भवदुःखदस्युः ||३२|| जिस वनस्पति में एक देह का एक जीव ही स्वामी होता है, उसे संसार के दुःख नष्ट करने वाले जिनेन्द्रदेव ने प्रत्येक वनस्पति कहा है । जैसे नारियल, खजूर आदि के वृक्ष । जिस वनस्पति में एक देह में अनेक वनस्पति जीव रहते हैं, उसे साधारण वनस्पति कहते हैं । जैसे कन्द मूल आदि । साधारण वनस्पति का भक्षण संसार के अनन्त दुःखों को देने वाला है ||३२|| पदग्निसिद्धं फलपत्रकादि तत्प्रासुकं श्रीविभुना न्यगादि । यच्छुष्कतां चाभिदधत्तृणादि खादेत्तदेवासुमतेऽभिवादी ॥३३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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