Book Title: Virodaya Mahakavya
Author(s): Bhuramal Shastri
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 281
________________ Trrrrrrrrrrrrr188 CTTTTTTTTTTTTTT अतः उस अपेक्षा को प्रकट करने के लिए प्रत्येक भंग के पूर्व 'स्यात्' पद का प्रयोग किया जाता है । इसे ही स्याद्वाद रूप सप्तभंगी कहते हैं । इस स्याद्वाद रूप सप्तभंग वाणी के द्वारा ही वस्तु के यथार्थ स्वरूप का कथन संभव है, अन्यथा नहीं । अनेकशक्त्यात्मकवस्तु तत्त्वं तदेकया संवदतोऽन्यसत्त्वम् । समर्थयत्स्यात्पदमत्र भाति स्याद्वादनामैवमिहोक्ति जातिः ॥८॥ वस्तुतत्त्व अनके शक्त्यात्मक है, अर्थात् अनेक शक्तियों का पुञ्ज है । जब कोई मनुष्य एक शक्ति की अपेक्षा से उसका वर्णन करता है, तब वह अन्य शक्तियों के सत्त्व का अनर अपेक्षाओं से समर्थन करता ही है । इस अन्य शक्तियों की अपेक्षा को जैन सिद्धांत 'स्यात्' पद से प्रकट करता है । वस्तु तत्त्व के कथन में इस 'स्यात्' अर्थात् कथञ्चित् पद के प्रयोग का नाम ही 'स्याद्वाद' है । इसे ही कथञ्चिद्-वाद या अनेकान्तवाद भी कहते हैं ॥८॥ भावार्थ - प्रत्येक वस्तु में अनेक गुण, धर्म या शक्तियां हैं । उन सब का कथन एक साथ एक शब्द से संभव नहीं है, इसलिए किसी एक गुण या धर्म के कथन करते समय यद्यपि वह मुख्य रूप से विवक्षित होता है, तथापि शेष गुणों या धर्मों की विवक्षा न होने से उनका अभाव नहीं हो जाता, किन्तु उस समय उनकी गौणता रहती है । जैसे गुलाब के फूल में रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि अनेक गुण विद्यमान है, तो भी जब कोई मनुष्य यह कहता है कि देखो यह फूल कितना कोमल है, तब उसकी विवक्षा स्पर्श गुण की है। किन्तु फूल की कोमलता को कहते हुए उसके गन्ध आदि गुणों की विवक्षा नहीं है । इस विवक्षा की अपेक्षा से जो कथन होता है, उसे ही स्याद्वाद, अनेकान्तवाद, अपेक्षावाद आदि नामों से कहा जाता है। द्राक्षा गुडः खण्डमथो सिताऽपि माधुर्यमायाति तदेकलापी । वैशिष्टयमित्यत्र न वक्तु मीशस्तस्मादवक्तव्यकथाश्रयी सः ॥९॥ दाख मिष्ट है, गुड़ मिष्ट है, खांड मिष्ट है और मिश्री मिष्ट है, इस प्रकार इन चारों में ही रहने वाले माधुर्य या मिठास को 'मिष्ट' इस एक ही शब्द से कहा जाता है । किन्तु उक्त चारों ही वस्तुओं में मिष्टता की जो तर-तमभावगत विशिष्टता है, उसे कहने के लिए हमारे पास कोई शब्द नहीं है । (तर और तम शब्द भी साधारण स्थिति को ही प्रकट करते हैं, पर उनमें परस्पर कितनी मिष्टता का अन्तर है, इसे वे भी व्यक्त नहीं कर सकते ।) इसलिए उक्त भाव के अभिव्यक्त करने को 'अवक्तव्य' पद के कथन का ही आश्रय लेना पड़ता है ॥९॥ तुरुष्कताभ्येति कुरानमारादीशायिता वाविलमेक धारा । तयोस्तु वेदेऽयमुपैति विप्रः स्याद्वाददृष्टान्त इयान् सुदीप्रः ॥१०॥ तुरुष्क (मुसलमान) 'कुरान' का आदर करता है, किन्तु ईसाई उसे न मानकर 'बाइबिल' को मानता है। इन दोनों का ही 'वेद' में आदर भाव नहीं है । किन्तु ब्राह्मण वेद को ही प्रमाण मानता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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